Saturday, March 19, 2011

अबकी होली

अबकी होली , कोई याद आ गया ,
सपना जिसका , रातों को जगा गया |
गुलाल हुए गाल , जिसकी तपन  से ,
बहके नयन , जिसकी छुअन से |
बाँहों के तंग घेरे में , जिसकी सिहरते  रहे ,
कसमसाते हम रहे , मुस्कुराते वे रहे |
भीग गया मन , पलक से मोती छलक गया ,
फागुनी इस मौसम में , कोई याद आ गया |

Friday, March 18, 2011

कैसी यह होली ?

कैसी  है यह होली ?
सुनामी का है प्रहार ,
बमों की है बौछार ,
इन्सान ही इनसान से ,
खून भरी खेल रहा होली |
डर - आतंक के साये में,
सहमे - सहमे हैं जन |
बारूद - घृणा की गंध है फैली ,
जल रहे है देश- तड़पे हैं मन |
क्यों नहीं रंगों की तरह ,
हम भी आपस में मिल जाते |
प्रेम , भाईचारे , सदभावना 
के सन्देश हवा में घुल जाते |


Thursday, March 17, 2011

mera ithhas

मैं, न सीता , न राधा,


न ही कुंती या कैकेयी ,

साधारण - सरल नारी


जीवित हूँ , इक विश्वास पे ,

दो मीठे बोलो के प्यार पे ,

घायल कर दे ऐसे नश्तर नहीं ,

चीर दे दिल वो तेवर नहीं


तेरे साथ जुड़ा, मेरा अस्तिव ,

मेरा तन , मेरा मन ,

मेरी वेदना, मेरा अहं....


फिर क्यों ऐसा हुआ ,

तुम अपने मे ही मगन

प्रशन करता है आज ,

मुझसे ही मेरा इतिहास ...........



Wednesday, March 16, 2011

naari

कभी तुझे बैठे नहीं देखा ,
कभी तुझे लेटे नहीं देखा ,
भागती - दौड़ती फिरकनी - सी ,
सबकी चिंता , सबकी फ़िक्र |
दो घड़ी तू बैठ क्यों नहीं जाती ,
अपने साथ वक़्त क्यों नहीं बिताती ,
कंपकंपाते हाथ , लड़खडाते पांवों को ,
अब तो करने दे कुछ आराम |
पर हर बार तू हँस देती है ,
अरे ! बैठ गयी तो बैठी रह जाउँगी,
इस जन्म में तो नहीं पर शायद ,
परलोक जा कर ही आराम पाऊँगी ,
चलने दो जब तक चलता यह तन ,
अपना नहीं , तुम सब में है मेरा मन ............!!!

Sunday, March 13, 2011

अम्मा की जिद्द

माँ की अब यही रहती है वही पुरानी जिद्द ,
बिटिया तुम तो बस लिखा करो चिठ्ठी |
हँस कर कहा, "हम रोज़ ही तो बतियाते हैं ,
फिर काहे को लिखे हम  वही  जो कह -सुन जाते हैं |
पता तो है हमको सबका सबकुछ रोज़ का हिसाब किताब ,
हाथरस वाले मामा की छुट्टन का ब्याह तय हो गया ,
बिना दहेज़ के बहुत ही बढ़िया विदेसी वर मिल गया |
एटा वाले चच्चा  का मंझला बेटा अभी भी है बेकार ,
और उनका बड़का , शादी होते ही घर से निकल गया |
बहुत दिनों से बीमार दाउदपुर वाले काका गुज़र गए ,
अच्छा ही है सोने की सीढ़ी चढ़ सुवर्ग सिधार  गए |
आंगन मे लगे अमरुद के फल,  सुनहरे हो पक गए ,
गाँव के बेकार पड़े खेत, भी कब के बिक गए |
गली के नुक्कड़ की हलवाई की दुकान खूब चलती है ,
जलेबी और समोसे  नहीं अब वहाँ   चाउमीन बिकती है |
परसाल जो भेजी थी, किसी के हाथ  कान की मशीन ,
अब शायद तुम्हें,  सुनने में  कुछ तकलीफ दे रही है |
सारी बातें तो हो जाती हैं लगभग हर रोज़ ,
फिर भी तुम्हरी काहे वही पुरानी जिद्द |
अरी बिटिया ! पत्री  हम बार - बार पढ़ते हैं,
कभी खुद तो कभी गुड्डन से पड़वाते  हैं |
उसे छू - छूकर तुमका ही तो दुलारते हैं ,
सिरहाने के निचे  रख सो जाते हैं ...
तुमको सदा  ही अपने पास पाते हैं............!!!