Tuesday, August 19, 2014

शब्‍दों का बिछड़ जाना.

सुनहली किरणों के स्‍पर्श से खुल जाते थे गुलों के लब,
उड़ते परागकणों की तरह निकल आते थे तुम..
तुम बिन बुलाए अक्‍सर आ जाया करते थे,
मगर अब ऐसा नहीं होता...
तुम्‍हीं तो ख्‍वाबों को कागजों पर शक्‍ल दिया करते थे,
कभी-कभी मूसलधार बारिश की बूंदों की तरह झरते थे,
और गीतों का सिलसिला बन जाता था।
हर लम्‍हा, हर जगह, हर शै में तुम कहीं न कहीं उभ्‍ार ही जाते थे ..
मगर न जाने क्‍यों और कहां गुम हो।
कलम करवट ही बदलती रहती है, किसी बिरहन की तरह....
कहां-कहां न तलाशा है तुम्‍हें,
किताबों के हर सफे से भी तुम नदारद ही नजर आते हो।
मेरी तन्‍हाइयों के दोस्‍त-मेरे शब्‍द।
कितना खुशगवार होता है शब्‍दों के साथ जीना
और कितना खामोश दर्द दे जाता है शब्‍दों का बिछड़ जाना.........