Tuesday, January 15, 2013

कैसे नहोगे कुंभ ...कैसे नहोगे कुंभ ????

हर हर गंगे ...हर हर गंगे का शोर ,
पावन मान हम नदी को भी पूजते ,
जन्मभर के पाप एक डुबकी मे छूटते ,
पतितपावनी , जगतजननी माँ है यह ,
तभी तो करोड़ों श्रद्धालु हर बार हे जुटते ,

नहीं सुनती इस कोलाहल मे मासूमों की चीख ,
जन्मी मै जनमानस को तारने सुरसरि है कह रही ,
रो रही भागीरथी बिचारी देख मानवता की कलुषता ,
मलिनता को धोना ही बस मेरी नियति है ,
जन्मी थी हिम तृंग के पावन अंचल मे ,
ले नीलकंठ का सहारा धरा को सिक्त करने आई ,
आस्था - संस्कृति के नाम पर कुचली गयी ,
कर आत्म मंथन हे बंदे , गंगा तो तेरे आँगन खेले ,
वह देख बह रही चंचल -निर्मल ,
हर गाँव - गलियारे मे ,माँ - बेटी- बहन- पत्नी के रूप मे ,
तेरा जीवन है संवार रही ,
उसकी कर इज्जत तू अपना जीवन सुधार ले ,
कैसे नहोगे कुंभ जब तेरी ब्रह्मपुत्री नग्न पेड़ों पे झूल रही ?
कैसे नहोगे कुंभ जब सड़कों पे सरेआम जाह्नवी है लूट रही ?
कैसे नहोगे कुंभ ...कैसे नहोगे कुंभ ??????????

Monday, January 14, 2013

छोड़ो जाने दो क्यों कहूँ ..अब क्या कहूँ ???

जब बोलते हो कर्ण , सुनते हो होठ ,
तब कितना भी पटको सिर ,
आवाज़ लौट- लौट आती है,
जो चीखती - दहाड़ती है भीतर ,
वह वही लावारिस लाश सी दम तोड़ जाती है ,
भिनभिनाती है वादो व नारो की मक्खियाँ ,
सत्ता - वर्दी के कूड़ेदान मे कहीं दफन हो जाती है ,
क्या कहूँ ....किससे कहूँ .... और कभी तो लगता है ,
छोड़ो जाने दो क्यों कहूँ ...?
छोटे - छोटे मासूम बच्चे ,
जब किसी के पागलपन का हो शिकार ,
हवस और नशा मिल लूटे अस्मत ,
नंगा जिस्म हो पड़ा किनारे ,
न कोई रहनुमा न कोई मुक्ति दाता,
जिनके हाथ कानून वही घातक,
क्या कहूँ ....किससे कहूँ .... और सच मानो तो ...
छोड़ो जाने दो क्यों कहूँ ..अब क्या कहूँ ???.?