Sunday, May 22, 2011

बुढ़िया की पोटली

बीच चौराहे बैठी बुढ़िया ,
डाले अपनी छोटी सी टपरी |
बेच रही थी छोटी -बड़ी ,
हलकी - भारी कुछ पोटली |
ले लो- ले लो लेने वालो ,
अपने सुख- दुःख की गठरी |
बुढ़िया की थी साफ़ हिदयात ,

खोल कर देखना है मना
जितना भी  तुम्हे मिला है ,
उसको लेकर मग्न रहो |
सब अपना सुख छाँट रहे थे ,
कनखियों से दूजे को आँक रहे थे |
दाब रहे थे अपना सुख पर ,
ताक रहे थे दूजे का दुःख |
हर कोई पोटली खींच  रहा था ,
एक दूजे पर खीज रहा था |
अब सब अपनी गठरी ले घूम रहे हैं ,
लगती भारी जो कभी प्यारी थी बड़ी |
अब भी नजर दूसरे की पर ही है गढ़ी,
यही गठरी है क्यों  मेरे गले  पड़ी |
काश ली होती मैने भी वही ,
क्यों नहीं देखा मैने पहले सही |
बुढ़िया की टपरी अब भी वहीं है ,
लिखा है  - बिका हुआ माल वापिस नहीं होता ..!!!