Thursday, May 16, 2013

रोज़ सुबह यही होता है,


रोज़ सुबह यही होता है,
उठाने जाती हूँ उसे और ,
वह उनिदी पलकों से फुसफुसा ,
चादर उठा कहता है बस पाँच मिनिट ,
मै भी इंकार नहीं कर पाती,
बजते कुकर की सीटी को भूल ,
हौले से सरक जाती हूँ उसकी चादर मे ,
हल्का सा चुंबन उसके माथे पे ,
मीठी सी डांट , देर हो रही है ,
कस कर लपेट लेता है वह ....
डाल अपनी टांगे मेरे ऊपर ,
हम्महम्म प्लीज़ .....माँ .... थोड़ी देर और ....
क्या करूँ माँ हूँ न ... पिघल जाती हूँ....
उसकी बाहों मे सिर रख बच्ची सी बन जाती हूँ .....
रोज़ सुबह यही होता है .....