Saturday, January 31, 2015

वह कसूरवार

उसने चुराई सूरज से रोशनी,
फिर वह छाँव बन गयी ,
कभी आगे - कभी पीछे,
घटती - बदती बस यूं ही ,
उसके ही इर्द - गिर्द बस यूं ही ,
बिन कसूर भी बनी कसूरवार ,
कीमत चुकनी पड़ी भारी,
एक कतरा रोशनी के लिए।

अब वह भी बनना चहाती हाए सूरज,
जगमग - जगमग - धधकता,
पर अब अपनों को हाए इंकार ,
आदत जो हो गयी हाए तुम्हारी,
अहर घड़ी चक्करघिन्नी सी तुम,
अरे ! छोड़ो जाने भी दो ,
क्यों , बेकार मए करती हो
अपना समय बरबाद,
जब मिल रही मुफ्त की रोशनी ,
व्यर्थ ही हो रही परेशान,
तुम बस छाया हो ,
छाया ही बन कर रहो ,
 आगे - पीछे - इर्द - गिर्द ,
गूंगी - बाहरी - बौनी  बन,
स्याह - श्यामल परछाई सी,
वह कसूरवार ..........................