माँ ने कहा था
माँ ने हमेशा कहा ...
नज़रे नीची ,
सर झुका ,
विनम्र हमेशा ,
जुबान पर ताला,
सवाल का जवाब नहीं ,
सामंजस्य बनाये रखना |
अपनी नहीं , दूसरों की सुनना ,
हर बात ध्यान से सुन ,
उस पर अमल करना |
माँ तेरी कोई नसीहत काम नहीं आई .....
जो जितना झुकता है ,
उतना ही झुकया जाता है |
खमोशी को अकड़ समझा जाता है |
हर रोज़ नया फिकरा कसा जाता है |
दूसरों की सुनते - सुनते ,
तेरी लाली अपने को भूल गयी |
तालमेल के इस बंधन में ,
त्रिशंकू सी झूल गयी |
काश ! तूने कहा होता ....
अपनी अस्मिता और पहचान न खोना ,
कमज़ोर नहीं है तू , एक इन्सान है,
तेरी भी अपनी ज़रूरत और माँग है |
तेरी नसीहत की पट्टी अब भी गुनगुनाती हूँ ,
शब्दों को अदल - बदल कर ,
अपनी बिटिया को सुनाती हूँ ,
ऐसे कर्म करना , तुम्हारा हो नाम ,
तू मात्र कठपुतली नहीं , न ही है घर का सामान,
रिश्ते बनाना , निभाना पर ढोना नहीं ,
एक ही जीवन है मजबूरी में बिताना नहीं .............
इति
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