जब भी करती हूँ तुमसे बातें ,
अपने - आप को पा जाती हूँ ,
न दिखावा ,
न छलावा,
न बनावट ,
न सजावट ,
बस मन की परतों को खोलती जाती हूँ |
तुम भी तो ,
मंद - मंद मुस्कुराते ,
कोरों से मुझे पीते,
मेरी मस्ती ,
मेरी चंचलता ,
मेरा अल्हड़पन ,
मेरा अपनापन ,
हल्के से
थाम लेते हो हाथ मेरा |
काँप जाती हूँ ,
नाज़ुक लता सी ,
और लिपट जाती हूँ शाख से |
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - हे प्रभु पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteसुंदर ....
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