Friday, January 21, 2011

भोलापन

बुधिया दौड़ती - दौड़ती भीतर आयी,
अम्मा का पल्लू खींच बोली ,
"जल्दी बाहर आओ ,
देखो उपरवाला ,हमसे भी ज्यादा गरीब है |"
अम्मा खिजाई, "छोरी काम का बखत है ,
तू अलाय  - बलाय बोल कर टेम ख़राब मत कर |"
बुधिया रूआंसी हो कर बोली ,
तू तो कहती थी ,
उपरवाला सबकी सुनता है ,
वही सबका मालिक है ,
वही सबको देता है ,
हमारी भी वही सुनेगा ,
पर उसका अपना कम्बल ,
कितने छेदों से भरा है |
अम्मा अवाक् उसका मूंह ताकने लगी ,
अरी पगली !  वह तो टिम टिमाते तारे हैं ,
उसकी मखमली चादर में जड़े सितारे हैं |
बुधिया तमतमाई ,तो हमारे सितारे को तुम ,
छप्पर में हुआ छेद क्यों कहती हो ?
उसने झोपडी के   कोने से छन कर आती,
चांदनी की तरफ अपनी ऊँगली घुमाई ,
दुधिया किरणों का प्रकाश ,
बुधिया के चेहरे को दमका रहा था ,
अम्मा रोटी सेंकना भूल ,
कभी बुधिया तो कभी छत को देखती ,
जो वाकई हीरे की तरह चमक रहा था |

2 comments:

  1. Truely amazing! It's actually about perspective. Each poem of yours is so profound that it just touches the heart directly. Keep writing and sharing. God bless.

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