Tuesday, February 22, 2011

मुट्ठी में बंधा वक़्त

कितना कसके बंधा था मुट्ठी में ,
फिर भी चुपके से निकल गया |
तेरे - मेरे बीच ठहरा वह वक़्त ,
हाथों से रेत सा फिसल गया |
अब भीतर धंस गया है वह पल ,
गहरे मन के किसी कोने में |
मेरे अंदर हम  दोनों  साथ चलते हैं ,
किस्से - कहकहे हवा में तिरते हैं |
पेड़ों से घिरी राह ख़त्म नहीं होती ,
नज़रों से मिली नज़र नहीं थकती |
तेरा अचानक ठिठक कर वह चूमना  ,
मेरा वह हलके से रुक कर सिहरना |
वक़्त जो बिताया था तेरे साथ कभी ,
ठहर गया है कहीं  जो बहता ही नहीं |

3 comments:

  1. सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

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  2. प्रशंसनीय बहुत ही उम्दा रचना .....बधाई स्वीकार करें

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