करके तुम्हें अपना सर्वस्व समर्पण ,
रह गया कोरे कागज़ सा मन |
न कालिख, न दाग ...
न हर्ष , न विषाद ...
न द्वेष , न क्लेश ....
तुम्हारे प्रेम से परिपूर्ण एक नाज़ुक दर्पण |
न दिन , न रात ...
न धूप , न बरसात ....
न जड़ , न चेतन ....
तुम्हारी यादों की खुशबू से
महका - महका जीवन .....!!
man ke bhavo ki ujaagar karti kriti
ReplyDeletebahut khub
सुभानाल्लाह.....बहुत खुबसूरत |
ReplyDeleteIski anubhuti kewal use ho sakati hai jisane aatma ke level par us rishte ko jiya ho!!Bahut khub.......
ReplyDeleteएक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !
ReplyDeleteकरके तुम्हें अपना सर्वस्व समर्पण ,
ReplyDeleteरह गया कोरे कागज़ सा मन |
न कालिख, न दाग ...
न हर्ष , न विषाद ...
न द्वेष , न क्लेश ....
तुम्हारे प्रेम से परिपूर्ण एक नाज़ुक दर्पण |
न दिन , न रात ...
न धूप , न बरसात ....
न जड़ , न चेतन ....
तुम्हारी यादों की खुशबू से
महका - महका जीवन .....!!
समर्पण के बाद ही मन
कोरे कागज सा हो जाता है
फिर कहीं कोई उद्ग्विनता
नहीं रह जाती है...
रह जाता है तो बस...
"तुम्हारी यादों की खुशबू से
महका-महका जीवन......!!"
***punam***
bas yun...hi..
खूबसूरत....
shukriya
ReplyDeleteकविता बहुत अछ्छी लगी,मगर ..."न जड़ न चेतन" सिर्फ ये कुछ मेरे मन को जमा नहीं.समर्पण के बाद तो चेतना और भी चेतनशील नहीं हो जायेगी ?
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