कभी पूजा देवी के रूप में ,
कभी दुत्कार दासी के रूप में ,
इस ऊँच - नीच के मध्य झूलते ....
सहधर्मिणी का रूप न दे सके |
परेशान खींसे निपोरते इधर - उधर झाँकते..
कोरा नाटक
भोथरा छल
झूठा प्रपंच
वास्तव में समानता कभी मान ही नहीं सके |
त्रिशंकु से
अपने में ही उलझे ...
मेरे हर रूप को माना मेरे धर्म ..मेरा फ़र्ज़...मेरा कर्तव्य ...
हाँ , मैं माँ हूँ ...
अथक पीड़ा के उपरांत किया सर्जन ..
हाँ , मैं बहन हूँ ...
सूनी कलाई सजा , घर को बनाया चमन ..
हाँ , मैं बेटी हूँ ...
नमकीन शरारतों से महकाया तेरा मन ...
हाँ , मैं पत्नी हूँ.....
एक आस - विश्वास पर छोड़ा बाबुल का आंगन ....
हाँ , मैं वो सब हूँ , जैसा तुमने चाहा ,
कभी करो मेरी चाहत,
पर भी गौर .....
व्यर्थ ही नहीं मचाते हम शोर.........
कभी दुत्कार दासी के रूप में ,
इस ऊँच - नीच के मध्य झूलते ....
सहधर्मिणी का रूप न दे सके |
परेशान खींसे निपोरते इधर - उधर झाँकते..
कोरा नाटक
भोथरा छल
झूठा प्रपंच
वास्तव में समानता कभी मान ही नहीं सके |
त्रिशंकु से
अपने में ही उलझे ...
मेरे हर रूप को माना मेरे धर्म ..मेरा फ़र्ज़...मेरा कर्तव्य ...
हाँ , मैं माँ हूँ ...
अथक पीड़ा के उपरांत किया सर्जन ..
हाँ , मैं बहन हूँ ...
सूनी कलाई सजा , घर को बनाया चमन ..
हाँ , मैं बेटी हूँ ...
नमकीन शरारतों से महकाया तेरा मन ...
हाँ , मैं पत्नी हूँ.....
एक आस - विश्वास पर छोड़ा बाबुल का आंगन ....
हाँ , मैं वो सब हूँ , जैसा तुमने चाहा ,
कभी करो मेरी चाहत,
पर भी गौर .....
व्यर्थ ही नहीं मचाते हम शोर.........
खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , सार्थक रचना , सार्थक तथा प्रभावी भावाभिव्यक्ति , ब धाई
ReplyDeleteकभी पूजा देवी के रूप में ,
ReplyDeleteकभी दुत्कार दासी के रूप में ,
इस ऊँच - नीच के मध्य झूलते ....
सहधर्मिणी का रूप न दे सके |
परेशान खींसे निपोरते इधर - उधर झाँकते..
कोरा नाटक
भोथरा छल
झूठा प्रपंच
वास्तव में समानता कभी मान ही नहीं सके
मूर्ति के रूप में पूजना आसान है स्त्री के किसी भी रूप को...
लेकिन जीती जागती मूर्ति जब अपनी बात सामने रखती है तो
पुरुष का कोई भी रूप उसे सहज स्वीकार नहीं कर पाता..... जिन्दगी के सारे logic लगा देता है अपनी बात को सही मनवाने में....विरले पुरुष हैं जो इस बात को समझते हैं और सम्मान भी देते हैं इस ज़िंदा मूर्ति के हर रूप को,संवेदनाओं और भावनाओं को.....!
नियति नारी की .........हर रूप में पूरी होकर भी ताउम्र अधूरी सी ही क्यूँ है ?
ReplyDeleteaap abhi ka dhnyawad...
ReplyDeleteकभी करो मेरी चाहत,
ReplyDeleteपर भी गौर .....
व्यर्थ ही नहीं मचाते हम शोर.......jahan shor uth jaye , wahan se ummeed hi vyarth hai
http://urvija.parikalpnaa.com/2011/09/blog-post_25.html
ReplyDeleteबहुत उम्दा और सार्थक रचना |
ReplyDeleteमेरी रचना देखें-
मेरी कविता:सूखे नैन
गहन संवेदनाओ से भरी रचना।
ReplyDeleteनारी जीवन का समग्र दर्शन दिखा दिया इस पोस्ट में आपने.....बहुत सुन्दर|
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