बारबार हर बार क्यों सिद्ध करना पड़ता है ,
अपने आप को,
कभी अच्छी - बच्ची ,
तो खानदानी बहू,
आदर्श पत्नी ,
सुघड़ गृहणी ,
पतिव्रता स्त्री ,
नैतिकता की सीढ़ी चढने का ठेका क्या बस है मेरा ....
घर और बाहर दोनों के बीच रखती सामंजस्य ,
खटती दोनों ही जगह ,
हरबार ...बारबार..फिर वही तुलना ..
फिर वही उपहास ,
वही स्त्री होने का ताना ,
क्यों नहीं देखा जाता स्त्री - पुरुष को एक ही सांचे में ,
आधुनिकता के साथ - साथ , लदा है बोझ क्यों परम्परा औ अनुशासन का ...
वही लक्ष्मण रेखा बारबार --- हरबार --
वही हाहाकार----- बार बार -- हरबार ,
गर श्रेष्ठ नहीं तो कमतर भी नहीं ,
सिर्फ भोग्या नहीं ,इंसान भी हूँ..
मेरे भीतर भी है आकांक्षा - कामना ,
मत करो -- मत करो -- मत करो
इतना उपहास - बार बार -- हरबार ....
वही लक्ष्मण रेखा बारबार --- हरबार --
ReplyDeleteवही हाहाकार----- बार बार -- हरबार ,
गर श्रेष्ठ नहीं तो कमतर भी नहीं ,
सिर्फ भोग्या नहीं ,इंसान भी हूँ..
सुन्दर रचना,बेहतरीन भाव पुर्ण प्रस्तुति,.....
RECENT POST...फुहार....: रूप तुम्हारा...
सुन्दर रचना,बेहतरीन भाव पुर्ण प्रस्तुति,.....
ReplyDeleteEK STRI DWARA HAR STRI KI "PEEDA KA SUNDAR PRASTUTIKARAN...!!!"
ReplyDeletesundar aur satik post.
ReplyDeleteshukriya
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना !
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Learnings: पथ मेरा आलोकित कर दो
पुरुष प्रधान मानसिकता पर चोट करती एवं समाज की कड़वी हकीकत को उजागर करती भावभरी मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपकी कविता पढ़कर लगा ... क्यों स्त्री की प्रति हमारे समाज का रविय्या इतना बुरा है ... हर कोई सोचने को विवश है ... आपके ब्लॉग पर पहली बार आया ... मेरे भी ब्लॉग पर आये .... फेसबुक में फ्रेंड रेकुएस्ट भी भेज रहा हूँ
Deleteवाह पूनम जी..........
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना...
अनु
stri ke dard ko bakhoobi darshaya hai aapne... bahut bahut abhaar hai aapka....
ReplyDeletekaash duniya ka har insaan ise padh pata to jis sachayi se wah bachta phirta hai vah uske samne aa jati...khair umeed hai yeh duniya tab tak chalti rahegi jab tak aap jaise log aurat ke swaabhimaan ke liye likhte rahenge.......
excellent job!!!!
स्त्री के मन के आक्रोश को शब्द देती एक सशक्त कविता । बहुत खूब ।
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