आजकल पता नहीं क्यों ,
बाज़ार में ,रास्ते पर ,
बाज़ार में ,रास्ते पर ,
भीड़ में , अकेले में ,
पार्क की बेंच पे ,
गलियारों में ,
मुझे एकाकी वृद्ध ,
अचानक बहुतायात नज़र ,
आने लगे हैं ...........
शायद है सब कुछ ,
पहले ही जैसा ,
पर उम्र के इस दौर पे आ ,
जो तेजी से दौड़ रही ढलान को ,
भय , शंका न जाने कैसा डर सता रहा है ......
जानती हूँ नहीं बदल सकती ,
वक़्त की लकीर को ,
मालूम है धरा हूँ मै ,
मुझसे जुड़ी मेरी पौध ,
ज़ल्द ही उन्हें अलग रोपने ,
का समय करीब आ रहा है ,
इसी मे है उनकी तरक्की ,
पर फिर भी मन रह -रह ,
न जाने क्यों हो जाता है उदास ......
मैं भी बन जाऊँगी उस भीड़ का हिस्सा ,
यादों का ले सहारा जो काटे दिन ,
एक आवाज़ सुनने को तरसता है ,
नजरें देखे सिर्फ तारीख ,
बदलता नही कैलेंडर का पन्ना ..........
आशाएं ना रखें ..जीवन अच्छा लगेगा !
ReplyDeleteआभार खूबसूरत रचना के लिए !
खूबसूरत रचना
ReplyDeleteek sachchayi ko jivant kar diya
ReplyDeleteकभी कभी ऐसा लगता है और यदि ऐसा हो भी गया तो वह हमारी बदनसीबी आप भरोसा रखिये ऐसा होगा ही नहीं जो बोता है वही काटता है
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति। मरे पोस्ट पर आपका आमंत्रण है। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुंदर । यही जीवन है और हमें इसे ही जीना है ।
ReplyDeleteअच्छी कविता पूनम जी
ReplyDeleteगुजरते वक्त के साथ हम केवल स्मृतियाँ बनकर रह जाते हैं
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत है पोस्ट।
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