उस राजा के प्राण बसते उस गुलाब में ,
करता बड़ी हिफाज़त से उसकी देख-रेख ,
स्वयं देता समय -समय पर खाद और पानी ,
करता खुद ही धूप -हवा और खर -पतवार का इंतज़ाम ,
रखता छुपा सबसे बड़े कांच के मर्तबान में ,
सहलाता आते -जाते ,होता खुश अपने नसीब पे ,
गुलाब भी कम प्रसन्न न होता अपने भाग्य पे ,
इठलाता पा प्रेमी जो चाहे उसे बढ़ -चढ़ के ,
उस पर था बस राजा का ही अधिकार ।
पर गुलाब तो था गुलाब आखिर कब तक ,
छिपाता कब तक सारे जहाँ से अपनी महक ,
राजा भी तो नहीं कर पाया उसके सार को काबू ,
जितना करता प्रयत्न उसे दबाने का ,
उतना ही ज़्यादा गमकता - महकता ,
लोग करने लगे आते - जाते सवाल ,
होने लगी ताका - झांकी बार -बार ,
आखिर इस सौन्धाहट का क्या है राज़ ?
झल्लाया - उकताया राजा ,
बंद कर दिया हर खिड़की -रोशनदान ,
हर छिद्र और दरार को दिया पाट ,
धीरे - धीरे मुरझाने लगा गुलाब ,
जितना बढ़ता निर्दयी राजा का शिकंजा ,
उतना छटपटाता मासूम गुलाब ,
ढूंढ़ता कहीं कोई झिर्री या सुराख़ ,
जिसकी ओर कर रुख पा जाये ,
कुछ कतरा ताज़ी सांस ।
मेरी बस मेरी है हर पत्ती औ पंखुरी ,
राजा का था सरेआम यह ऐलान ,
सिर्फ मैं ही हूँ कर सकता इसका रसपान ,
हर एक परागकण पर बस मेरा ही है अधिकार ,
खबरदार ! जो किसी ने लगाया इसे हाथ ,
गुलाब बिचारा देखा -करता इधर -उधर ,
सोचा करता किस तरह खिले -खिले फिरते बाकी के गुलाब ...
शायद किसी दिन मिल जाये मुझको भी मुक्ति ,
हो जाऊ मै भी आजाद ..................
अत्याधिक प्रेम भी घुटन पैदा करता है....
ReplyDeleteअच्छी रचना
अनु
खबरदार ! जो किसी ने लगाया इसे हाथ ,
ReplyDeleteगुलाब बिचारा देखा -करता इधर -उधर ,
सोचा करता किस तरह खिले -खिले फिरते बाकी के गुलाब ...
शायद किसी दिन मिल जाये मुझको भी मुक्ति ,
हो जाऊ मै भी आजाद
प्रेम और श्रद्धा का अनूठा संगम प्रेम सदा एकांगी होता है ऐसा विद्वानों का कथन है .