सुना है आज रावण दहन है ,
बड़े - बड़े पुतले ,बुराई का प्रतीक ,
सजाये गए बहुत अरमान से ,
फिर जलाए गए पूरे उल्लास से ॥
मैने भी आज किया दशानन के साथ ,
अपनी अतृप्त इच्छाओं को होम ,
शृंगार कर अपनी तिरस्कृत भावनाओं का ,
और फूँक दिया उन करारों की आग मे ॥
नहीं , नहीं है कोई झटपटाहट ,
बस एक काँगड़ी सी है भीतर ,
जो निरंतर- सतत दहकती है ,
करती प्रज्ज्वलित - निखारती सदा ॥
बस एक काँगड़ी सी है भीतर ,
जो निरंतर- सतत दहकती है ,
करती प्रज्ज्वलित - निखारती सदा ॥
बहुत सुन्दर हिंदी शब्दों के साथ शानदार कविता।
ReplyDeleteबढिया
ReplyDeleteबहुत बढिया
बहुत सुन्दर रचना..पूनम जी..शुभकामनाएं
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteनहीं , नहीं है कोई झटपटाहट ,
ReplyDeleteबस एक काँगड़ी सी है भीतर ,
जो निरंतर- सतत दहकती है ,
करती प्रज्ज्वलित - निखारती सदा ॥
LET IT AS IT IS.
वाह.. बहुत खूब
ReplyDeleteमैने भी आज किया दशानन के साथ ,
ReplyDeleteअपनी अतृप्त इच्छाओं को होम ,.....
बहुत सार्थक रचना , शानदार !