गांठ सी थी ..
गुम अपने में मग्न
या नदी सी --कलकल ... थी ,
पहेली सी - अनबुझ ...
जब तक थी महफ़िल में बातों का कारण थी
और मरकर भी ..........!!
न कोई मशहूर हस्ती थी न ही कोई नामचिनी खानदान ..
कमबख्त ऐसी ही थी .......
जीते जी लोंगो की जुबान पे कसैली या रसीली ..
तुर्श.......इश श श श ....चटपटी ..मजेदार .. ...
मर कर भी ..खट्टी - मीठी ....
पहली धार सी .....तीखी ...सीधे सर चढ़ कर बोले ।
आजाद ......बिन डोर पतंग .....समाज के सागर मे बिन पतवार की नैय्या .
डूबती -तैरती -उबरती -
हिचकोले -लेती ....मनमौजी लहरों पे .
आवारा - किरण सी सवार ।
बोलती कम ,हँसती ज़्यादा थी -----
धूप में मनो अभ्रक छिडकती थी !!!!
उसकी यही बेफिक्री
कईयों को खल गयी ,
भला यह भी कोई ,
जीने का अंदाज़ है ,
न चिंता - न फिकर ,
न लाज - न हया ,
न छोटो का लिहाज़ ,
न बड़ों की शर्म
उसने किया नगाड़ा बजा एक अलग ही ऐलान --------
अब सिर्फ सुनेगी,
अपने मन की .....
अब सिर्फ करेगी ,
अपने मन की ..................
और फिर .....वह उड़ने लगी ...बहने लगी..
धरती से आकाश की और ..
झंझावातों - धूलि--धूसरित बादलों से परे ....
दूर आकाश की ओर
बिजली के प्रहार से बेपरवाह ...निडर ...मजबूत ..मस्त..
....उडती ...ऊँचे ही ऊँचे ....कर गयी प्रस्थान ..
गुम अपने में मग्न
या नदी सी --कलकल ... थी ,
पहेली सी - अनबुझ ...
जब तक थी महफ़िल में बातों का कारण थी
और मरकर भी ..........!!
न कोई मशहूर हस्ती थी न ही कोई नामचिनी खानदान ..
कमबख्त ऐसी ही थी .......
जीते जी लोंगो की जुबान पे कसैली या रसीली ..
तुर्श.......इश श श श ....चटपटी ..मजेदार .. ...
मर कर भी ..खट्टी - मीठी ....
पहली धार सी .....तीखी ...सीधे सर चढ़ कर बोले ।
आजाद ......बिन डोर पतंग .....समाज के सागर मे बिन पतवार की नैय्या .
डूबती -तैरती -उबरती -
हिचकोले -लेती ....मनमौजी लहरों पे .
आवारा - किरण सी सवार ।
बोलती कम ,हँसती ज़्यादा थी -----
धूप में मनो अभ्रक छिडकती थी !!!!
उसकी यही बेफिक्री
कईयों को खल गयी ,
भला यह भी कोई ,
जीने का अंदाज़ है ,
न चिंता - न फिकर ,
न लाज - न हया ,
न छोटो का लिहाज़ ,
न बड़ों की शर्म
उसने किया नगाड़ा बजा एक अलग ही ऐलान --------
अब सिर्फ सुनेगी,
अपने मन की .....
अब सिर्फ करेगी ,
अपने मन की ..................
और फिर .....वह उड़ने लगी ...बहने लगी..
धरती से आकाश की और ..
झंझावातों - धूलि--धूसरित बादलों से परे ....
दूर आकाश की ओर
बिजली के प्रहार से बेपरवाह ...निडर ...मजबूत ..मस्त..
....उडती ...ऊँचे ही ऊँचे ....कर गयी प्रस्थान ..
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ReplyDeleteऔर ये समाज दे भी क्या सकता था उसे सिवाए प्रस्थान करवाने के ...
ReplyDeleteसमाज तो दकियानुशी ह, उम्मीद की जा सकती है समाज से , बहुत सुंदर भाव, आभार
ReplyDeleteआसमान की ओर उठते मुबारक ....!!
ReplyDeletebahut bahut abhar
Deletesunder bhav.
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