वह ऊँचा पहाड़ , नंगा खड़ा था |
गर्व से उसका माथा चड़ा था |
न पेड़ , न पौधे , न ही घास थी वहाँ |
पहुँचे अनेक , पर रुके नहीं वहाँ |
सबसे अलग महान और एकाकी |
न चिड़िया - पंछी न हवा थी बाकी |
चेहेरे पर मुस्कान दिल मे दर्द छिपाए |
रंगों - संगो को वह है तरसता रहे |
यही है इतना ऊँचे होने की मज़बूरी |
जो बड़ा देती है अपनों से दूरी |
इसलिए मै अपने आमपन मे ही खुश हूँ |
भीड़ मे खोकर भी, अपने आप मे ख़ास हूँ |
इति ......
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