कितने मैं चलते ,
एक साथ मेरे भीतर ..
सब एक दूजे से एकदम जुदा ..
साथ रहते हैं ,
पलते है ,
बतियाते हैं ,
झगड़ते हैं ,
संभलते हैं ,
एक दूजे पे हावी ...
स्पर्धा ....बैर ...द्वेष ...
आगे निकल जाने की कोशिश .....
सुनूँ एक की तो ...
खो जाती हूँ स्वयं को...
दूजे की बात में..
पाती हूँ सिर्फ मैं ही मैं ...
टक्कर ...द्वन्द ...विरोध...मतभेद...
कौन सही .....
कौन गलत ...
अनुत्तरित ..........सब .....
एक साथ मेरे भीतर ..
सब एक दूजे से एकदम जुदा ..
साथ रहते हैं ,
पलते है ,
बतियाते हैं ,
झगड़ते हैं ,
संभलते हैं ,
एक दूजे पे हावी ...
स्पर्धा ....बैर ...द्वेष ...
आगे निकल जाने की कोशिश .....
सुनूँ एक की तो ...
खो जाती हूँ स्वयं को...
दूजे की बात में..
पाती हूँ सिर्फ मैं ही मैं ...
टक्कर ...द्वन्द ...विरोध...मतभेद...
कौन सही .....
कौन गलत ...
अनुत्तरित ..........सब .....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteप्रस्तुति ..........अनुत्तरित
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना,,,अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteRECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयही स्थिति बनी रहती है....द्वंद को बेहतरीन शब्दों में ढाला है।
ReplyDeleteab "Main" kya kahu? Ummda
ReplyDelete