वह मासूम सी बच्ची ..
सूरज की ओर कर मुंह ...
आंखे कर चौड़ी - बड़ी -फैला कर ...
खोलती ------ मुंदती ----खोलती ---मुंदती ------
जब पूछा मैने -- अचरज से भर ---
बोली -------- मसूमियत से ....
धूप भर रही हूँ -----
फैलानी है घर के आंगन में -----
बहुत अँधेरा है -----
सूझता नहीं हाथ को हाथ ..
अक्सर बापू भी गिर जाता है ...
कभी तो माँ को ढोल भी मान लेता है ....
नन्हा भी नहीं चल पता ठीक से ----
बिसूरता रहता है ---
रगड़ता है नंगे फर्श पे...
कई बार लथपथ हो जाता है ---
बापू की रात को उलटाई दारू से----
माँ भी तो अब कहाँ देख पाती है -------
वही जीर्ण -शीर्ण सी धोती लपेटे लेती है --
जो ढकती कम -- उघाडती ज्यादा है ---------
शायद बदल जाये -----
कुछ असर कर जाये ----------यह धूप ..................
शायद बदल जाये -----
ReplyDeleteकुछ असर कर जाये ----------यह धूप .......
बहुत बेहतरीन रचना लिखी है ,,,,,पूनम जी,बधाई,,,,
RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
मार्मिक और सुन्दर ।
ReplyDeleteकिसी भी एहसास को अपने साथ बाँध लेने वाली नज्म है |
ReplyDeleteबहुत मार्मिक ... दिल कों छूती है रचना ... मासूम के एहसास लिए ...
ReplyDeleteधूप भर रही हूँ -----
ReplyDeleteफैलानी है घर के आंगन में -----
प्रबल भावपक्ष सुंदर कविता. सब ठीक होने की प्रतीक्षा.
सुंदर भाव, मार्मिक कविता।
ReplyDeleteवर्तनी दोष, रेखाओं का निरर्थक प्रयोग खटकता है। आप स्वयं पढ़कर ठीक कर सकती हैं।
गाँव और शहर की मासूम बच्चियों में फर्क होता है पूनम जी ... बहुत सुंदर
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