शापित ही जन्मी तू ,
मिले सभी अधिकार ,
ऊँचा दर्जा भी पाया ,
कहलाई कल्याणी ,
पूजनीय भी रही तू ,
पर फिर भी अभिशप्त ही रही तू ॥
चिपकी रही जड़ों से ,
लेने को सांस यदा- कदा,
फैलाई नसे बाहर की और ,
मिले सभी अधिकार ,
ऊँचा दर्जा भी पाया ,
कहलाई कल्याणी ,
पूजनीय भी रही तू ,
पर फिर भी अभिशप्त ही रही तू ॥
चिपकी रही जड़ों से ,
लेने को सांस यदा- कदा,
फैलाई नसे बाहर की और ,
जी ली पल दो पल फिर ,
ढाप दी गयी बदूबूदार मान्यताओं से ॥
तुमको नहीं है प्राप्त यह अधिकार ,
चलो वापिस अपने खोल में,
औकात मे ही रहो अपनी ,
जो करने को हो जन्मी वही करो ,
मत करो बराबरी यूं ही हमसे ॥
ज्ञात नहीं तुझे हमारी शक्ति का अंदाज़ा ,
घसीट बाहर कर सकते है अभी के अभी,
इतराती हो नारी के जिस मान पर ,
उसे जब चाहे सकते है रौंद,
तुम हो देहरी का गहना ,
यूं बस सज-सँवर दिल बहलाती रहो ,
राज करो बन गूंगी औ बहरी,
मुझे बस रीझती रहो ॥
ढाप दी गयी बदूबूदार मान्यताओं से ॥
तुमको नहीं है प्राप्त यह अधिकार ,
चलो वापिस अपने खोल में,
औकात मे ही रहो अपनी ,
जो करने को हो जन्मी वही करो ,
मत करो बराबरी यूं ही हमसे ॥
ज्ञात नहीं तुझे हमारी शक्ति का अंदाज़ा ,
घसीट बाहर कर सकते है अभी के अभी,
इतराती हो नारी के जिस मान पर ,
उसे जब चाहे सकते है रौंद,
तुम हो देहरी का गहना ,
यूं बस सज-सँवर दिल बहलाती रहो ,
राज करो बन गूंगी औ बहरी,
मुझे बस रीझती रहो ॥
"राज करो बन गूंगी औ बहरी"
ReplyDeletekathputali jaise :(
फिर भी .... अभिशप्त !
ReplyDeletebehtreen
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत बढिया..
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