छक्का ...
हिजड़ा ....
हा हा ...ही..... ही ....
नहीं कोई पहचान ,
न ही कोई मान ,
बस हंसने - हँसाने का सामान॥
न स्त्री न ही पुरुष ,
दोनों का ही समावेश ,
इसलिए हँसी का पात्र॥
गाना - बजाना - नाचना ,
अपना दर्द छिपा --- हाय - हाय कहना ,
काम नहीं मजबूरी है मेरी ,
अब तुम्हें भी यही सुनने की आदत जो है मेरी ॥
हिजड़ा ....
हा हा ...ही..... ही ....
नहीं कोई पहचान ,
न ही कोई मान ,
बस हंसने - हँसाने का सामान॥
न स्त्री न ही पुरुष ,
दोनों का ही समावेश ,
इसलिए हँसी का पात्र॥
गाना - बजाना - नाचना ,
अपना दर्द छिपा --- हाय - हाय कहना ,
काम नहीं मजबूरी है मेरी ,
अब तुम्हें भी यही सुनने की आदत जो है मेरी ॥
sach kaha aapne
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन ' जन गण मन ' के रचयिता को नमन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteabahr
Deleteबहुत सही कहा...
ReplyDeletekhoob kaha..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteप्राकृति के मारे या इंसानी रूप में हैवाने के मारे लोगों के दर्द को उकेरा है इन पंक्तियों में ...
ReplyDeletesahi kaha...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और गहन..........कसक सी उठाती रचना।
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