सुनो याद है न ,
वह छुपनछिपाई का खेल ,
बहुत पहले कभी बचपन मे ,
खेला करते थे हम - तुम ,
कंटीली झाड़ी, टेड़ी-मेड़ी चट्टान ,
बरसों खड़ा बूढ़ा बरगद का पेड़,
उसकी लटकती अंधेरी दाड़ी.....
हर बार तुम नया ठिकाना ,
पता नहीं कैसे ढूंढ लेते थे तुम,
मैं पगली - सिरफिरी - झींकती ,
खीजती - सुबकती ढूँढती - फिरती ,
पुकारती ज़ोर - ज़ोर से बार - बार ,
तेरा नाम .............................
मैं हार गई , सुनो हार गई हूँ मैं ,
अब तो बाहर आ जाओ न , सुनो ,
कहीं छुपे तुम शायद देख रहे मुझे ,
ले रहे मज़े मन ही मन मेरी अकुलाहट का ,
धम्म से कूद पड़ते अचानक ,
मैं बरसाती मुक्कियाँ तुम्हारी छाती पे ,
रोते - रोते लगातार बार - बार ,
जाओ नहीं खेलूँगी कभी तुम्हारे साथ ....
कभी नहीं ....कभी भी नहीं .......
तुम खींच चोटी मेरी , पकड़ अपने कान ,
अरे , पगली , खेल है न यह ,
तू तो यूं ही रूठ जाती है , रुदाली ............
फिर बना सरकंडो का ताज ,
रख सिर मेरे , कहते ,
अब मान भी जाओ , महारानी ............
खिलखिला , सब भूल - भाल ,
मान जाती हर बार ,
सुनो , सुन रहे हो न ,
आज फिर से खेल रहे तुम वही ,
पुराना बचपन का खेल ,
डरती , कांपती , सुबकती ,
पुकारती तुम्हारा नाम , बार - बार ,
मैं हार गई , सुनो हार गई हूँ मैं ,
गूँजती मेरी ही आवाज़,
सुनती हूँ टकराती ,
दीवारों , दरवाज़े,खिड़की ,
हवा , पानी, आसमान से ,
हार गई हूँ मैं , मैं गई हूँ हार ................ हार गई हूँ .....गई हूँ हार .....!!!!!!!!!!!!
वह छुपनछिपाई का खेल ,
बहुत पहले कभी बचपन मे ,
खेला करते थे हम - तुम ,
कंटीली झाड़ी, टेड़ी-मेड़ी चट्टान ,
बरसों खड़ा बूढ़ा बरगद का पेड़,
उसकी लटकती अंधेरी दाड़ी.....
हर बार तुम नया ठिकाना ,
पता नहीं कैसे ढूंढ लेते थे तुम,
मैं पगली - सिरफिरी - झींकती ,
खीजती - सुबकती ढूँढती - फिरती ,
पुकारती ज़ोर - ज़ोर से बार - बार ,
तेरा नाम .............................
मैं हार गई , सुनो हार गई हूँ मैं ,
अब तो बाहर आ जाओ न , सुनो ,
कहीं छुपे तुम शायद देख रहे मुझे ,
ले रहे मज़े मन ही मन मेरी अकुलाहट का ,
धम्म से कूद पड़ते अचानक ,
मैं बरसाती मुक्कियाँ तुम्हारी छाती पे ,
रोते - रोते लगातार बार - बार ,
जाओ नहीं खेलूँगी कभी तुम्हारे साथ ....
कभी नहीं ....कभी भी नहीं .......
तुम खींच चोटी मेरी , पकड़ अपने कान ,
अरे , पगली , खेल है न यह ,
तू तो यूं ही रूठ जाती है , रुदाली ............
फिर बना सरकंडो का ताज ,
रख सिर मेरे , कहते ,
अब मान भी जाओ , महारानी ............
खिलखिला , सब भूल - भाल ,
मान जाती हर बार ,
सुनो , सुन रहे हो न ,
आज फिर से खेल रहे तुम वही ,
पुराना बचपन का खेल ,
डरती , कांपती , सुबकती ,
पुकारती तुम्हारा नाम , बार - बार ,
मैं हार गई , सुनो हार गई हूँ मैं ,
गूँजती मेरी ही आवाज़,
सुनती हूँ टकराती ,
दीवारों , दरवाज़े,खिड़की ,
हवा , पानी, आसमान से ,
हार गई हूँ मैं , मैं गई हूँ हार ................ हार गई हूँ .....गई हूँ हार .....!!!!!!!!!!!!
आज फिर से खेल रहे तुम वही ,
ReplyDeleteपुराना बचपन का खेल ,
डरती , कांपती , सुबकती ,
पुकारती तुम्हारा नाम , बार - बार ,
बचपन भुलाए नहीं भूलता ........
नई पोस्ट अनुभूति : नई रौशनी !
नई पोस्ट साधू या शैतान
बहुत ही बढ़िया …… आपके शब्दों में कोई बनावट नहीं होती मासों से लफ्ज़ कलम पर खेलते हैं..... शुभकामनायें |
ReplyDeleteसच है बचपन भुलाए नहीं भूलता ........बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteसुंदर भाव, शुभकामनाये
ReplyDeleteइस हार में भी जीत छुपी है...
ReplyDeletesunder prastuti
ReplyDeleteसुनती हूँ टकराती ,
ReplyDeleteदीवारों , दरवाज़े,खिड़की ,
हवा , पानी, आसमान से ,
हार गई हूँ मैं , मैं गई हूँ हार ................ हार गई हूँ .....गई हूँ हार .....!!!!!!!!!!!!
बेहद खूबसूरत अलफ़ाज़ पूनम जी... माज़ी भी अजीब होता है न.. :)