वो दो जिस्म एक जान थे ,
धड़कता था एक ही दिल ,
साँसों का आरोह - अवरोह भी सम,
दर्द - आँसू - मुस्कान - प्यास भी वही .........
फिर ये क्या हुआ कि,
एक जिस्म हो गया जुदा,
अचानक उठ चल दिया ,
न कोई ताना - न उलाहना,
बस फीकी सी उदास नज़र,
हल्के - थके से कदम ,....
दूर जाती मटमैली सी छाया .............
रह गया जो, अब तक वही है पड़ा ,
मुर्दा सा - बुझे अलाव की राख की माफिक ,
भीतर ही भीतर धधकता ,
फिर धीरे- धीरे होता विलीन ............
हुबबू थे तो यह क्यों हुआ ....हुआ ये क्यूँ कर??????
धड़कता था एक ही दिल ,
साँसों का आरोह - अवरोह भी सम,
दर्द - आँसू - मुस्कान - प्यास भी वही .........
फिर ये क्या हुआ कि,
एक जिस्म हो गया जुदा,
अचानक उठ चल दिया ,
न कोई ताना - न उलाहना,
बस फीकी सी उदास नज़र,
हल्के - थके से कदम ,....
दूर जाती मटमैली सी छाया .............
रह गया जो, अब तक वही है पड़ा ,
मुर्दा सा - बुझे अलाव की राख की माफिक ,
भीतर ही भीतर धधकता ,
फिर धीरे- धीरे होता विलीन ............
हुबबू थे तो यह क्यों हुआ ....हुआ ये क्यूँ कर??????
sundar aur behtreen rachna
ReplyDeleteसमय के पास भी नही होता ऐसे कुछ प्रश्नों का जवाब ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना...
ReplyDeleteबहुत बढिया.....
ReplyDeleteवाह वाह ! बहुत ही शानदार
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट आज के (शुक्रवार, ११ अप्रैल, २०१४) ब्लॉग बुलेटिन - मसालेदार बुलेटिन पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई
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