आंसुओं की बारिशों से भीगी रातों में,
आधे खुले दरवाज़े से आती हुई रौशनी ,
हल्के अँधेरे और उजालों की छुटपुट आहटों के बीच लगा कि कोई आया है.....
बिखरता रहा उजड़े ख़्वाबों का चूरा,
लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं,
समय की धूल से भरे तकिये पर सर रखे,
न भूल पाने की बेबसी में..
दीवार... दरवाजें.....शहर और वीराना..
लौट आना बिस्तर पर...
काश !सीख पती तुम्हें भूल पाना...........
आधे खुले दरवाज़े से आती हुई रौशनी ,
हल्के अँधेरे और उजालों की छुटपुट आहटों के बीच लगा कि कोई आया है.....
बिखरता रहा उजड़े ख़्वाबों का चूरा,
लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं,
समय की धूल से भरे तकिये पर सर रखे,
न भूल पाने की बेबसी में..
दीवार... दरवाजें.....शहर और वीराना..
लौट आना बिस्तर पर...
काश !सीख पती तुम्हें भूल पाना...........
भूलने के बहाने याद आना। य़ह भी अवश्यम्भावी हैं। सुन्दर कविता :)
ReplyDeleteकहाँ आसान होता है यादों को काट फैंकना हर शे से ... उनको भूल पाना आसानी से ...
ReplyDeleteबेहतरीन ...
ReplyDeletebehad hi bhawpurn ati sunder...
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