माँ बार - बार ऑंखें रगड़ रही थीं ,
"आज लकड़ी बहुत गीली है ,"
खिसयानी हँसी कुछ और ही कह रही थी |
बापू के तीखे तेवर और ऊँची आवाज़ ,
घर के कोने- कोने को दहला रहे थे ,
बच्चे और अधिक अम्मा से सटे जा रहे थे |
अनपढ़ - अनगढ़ , सीधी - सादी माँ ,
मूक गाय सी आँसू बहा रही थी |
तुम सब सोर कम करो ,
तुमरे बापू कुछ परेसान हैं |
बापू की हर परेशानी का अम्मा क्यों है शिकार ,
गलती चाहे हो किसी की माँ पर ही क्यों होता है वार |
आखिर कब तक वह सहती रहेगी यह अत्याचार ?
न बिटिया हमका कोई दुख नहीं ,
यह तो मरद का काम ही है गरजना - बरसना ,
रोब -दाब , अहं यह सब है उनकी पहचान |
हमरे असून का , का है जे तो ज्यूँ ही बहे जाते हैं ,
तुमरे बापू दिन भर कहीं भई रहे ,
कम से कम साम को घर तो लौट आते हैं ,
हमरे जीने के लिए तो इत्ता ही बहुत है |
मुनिया टुकुर - टुकर अम्मा को निहार रही थी ,
क्या यही नियति मेरी भी होगी यही सोच रही थी |
तभी मुनुआ अम्मा से चिपट गया ,
तेरे लिए मैं बिजली का चूल्हा लाऊंगा,
अम्मा तेरा हर दुख अब मैं उठाऊंगा |
अम्मा ने प्यार भरी चपत लगाई,
यह सब करना जब आए तेरी लुगाई |
मुनुआ अम्मा में और गद गया ,
मुनिया ने बजाई तली और बोली ,
मैं अपना चूल्हा खुद लाऊँगी ,
अपनी ऑंखें यूँ ही न व्यर्थ बहाउंगी |
अम्मा ने धैर्य से सर पर हाथ फेरा ,
हाँ , तेरा हर सपना जरुर पूरा करवाउंगी |
अब बापू के विरोध से भी ,
मुनिया पढने जाती है ,
घर आ अम्मा को किस्से - कहानी सुनती है |
अम्मा अब भी ऑंखें रगडा करती है ,
अपनी नहीं , बापू की ऑंखें पौंछा करती है ,
खटिया पर पड़े बापू गों - गों करते हैं ,
उनकी आँखों से अविरल बहते आंसू मानो ,
अपराध बोध से ग्रस्त क्षमा याचना करते हैं |
मुनिया - मुनुआ कभी - कभी मिलने आते हैं ,
लाख चाहने पर भी अम्मा को साथ नहीं ले जा पाते,
अम्मा बापू की सेवा में दिन -रात बिताती है ,
उसे ही अपने भाग्य का लेखा मान कर तृप्त हो जाती हैं |
"आज लकड़ी बहुत गीली है ,"
खिसयानी हँसी कुछ और ही कह रही थी |
बापू के तीखे तेवर और ऊँची आवाज़ ,
घर के कोने- कोने को दहला रहे थे ,
बच्चे और अधिक अम्मा से सटे जा रहे थे |
अनपढ़ - अनगढ़ , सीधी - सादी माँ ,
मूक गाय सी आँसू बहा रही थी |
तुम सब सोर कम करो ,
तुमरे बापू कुछ परेसान हैं |
बापू की हर परेशानी का अम्मा क्यों है शिकार ,
गलती चाहे हो किसी की माँ पर ही क्यों होता है वार |
आखिर कब तक वह सहती रहेगी यह अत्याचार ?
न बिटिया हमका कोई दुख नहीं ,
यह तो मरद का काम ही है गरजना - बरसना ,
रोब -दाब , अहं यह सब है उनकी पहचान |
हमरे असून का , का है जे तो ज्यूँ ही बहे जाते हैं ,
तुमरे बापू दिन भर कहीं भई रहे ,
कम से कम साम को घर तो लौट आते हैं ,
हमरे जीने के लिए तो इत्ता ही बहुत है |
मुनिया टुकुर - टुकर अम्मा को निहार रही थी ,
क्या यही नियति मेरी भी होगी यही सोच रही थी |
तभी मुनुआ अम्मा से चिपट गया ,
तेरे लिए मैं बिजली का चूल्हा लाऊंगा,
अम्मा तेरा हर दुख अब मैं उठाऊंगा |
अम्मा ने प्यार भरी चपत लगाई,
यह सब करना जब आए तेरी लुगाई |
मुनुआ अम्मा में और गद गया ,
मुनिया ने बजाई तली और बोली ,
मैं अपना चूल्हा खुद लाऊँगी ,
अपनी ऑंखें यूँ ही न व्यर्थ बहाउंगी |
अम्मा ने धैर्य से सर पर हाथ फेरा ,
हाँ , तेरा हर सपना जरुर पूरा करवाउंगी |
अब बापू के विरोध से भी ,
मुनिया पढने जाती है ,
घर आ अम्मा को किस्से - कहानी सुनती है |
अम्मा अब भी ऑंखें रगडा करती है ,
अपनी नहीं , बापू की ऑंखें पौंछा करती है ,
खटिया पर पड़े बापू गों - गों करते हैं ,
उनकी आँखों से अविरल बहते आंसू मानो ,
अपराध बोध से ग्रस्त क्षमा याचना करते हैं |
मुनिया - मुनुआ कभी - कभी मिलने आते हैं ,
लाख चाहने पर भी अम्मा को साथ नहीं ले जा पाते,
अम्मा बापू की सेवा में दिन -रात बिताती है ,
उसे ही अपने भाग्य का लेखा मान कर तृप्त हो जाती हैं |
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