सिरफिरी और पागल घोषित किया गया उसे ,
वह आज सोचने जो लगी ,
वह आज बोलने जो लगी ,
वह आज विरोध जो करने लगी ,
वह आज तय जो करने लगी ,
वह आज चयन जो करने लगी ,
वह आज फैसले जो लेने लगी ॥
लीक पर चलो ,
ठोक- बजा कर ,
पूरी कायवाद कर,
अपने इस्तेमाल के लिए ,
लाये थे तुम्हें ।
जितना हो जरूरी ,
उतना ही बोलो ,
जब तक हम न कहे ,
जहाँ हो वहीं चिपकी रहो ,
वैसे भी तुम तो न घर की हो घाट की ,
तुम्हारा नाम भी तो अपना नहीं ,
न कोई पहचान ,
क्या भर सकती हो कोई भी कागज- पत्तर,
हमारे दिये नाम के बिना ,
जब नहीं तुम्हारा कोई अस्तित्व ,
तो फालतू मे इतना शोर क्यों करो ,
जाओ जाकर कुछ पोंछो ,
कुछ साफ करो ॥
पर वह क्या करती ,
उसके सिर के चारों तरफ ,
जैसे कुछ उग आया था ,
जो दिखता तो नहीं ,
पर हर पल - हर घड़ी ,
उसे कौंचता रहता ,
उसे उकसाता - बहकता ,
पगली ! मत आ इस छलावे मे ,
तू भी एक शरीर -एक आत्मा है,
बरसों से कुचली गयी ,
रक्त -रंजित- उपेक्षित ,
अब न कर देर ,
कर आज़ाद अपने को ,
विभित्सित इन विचारों से ,
तेरा पागलपन कहीं भला है .,
इसलिए, अब उसे सिरफिरे होने पे भी कोई एतराज नहीं .....
वह आज सोचने जो लगी ,
वह आज बोलने जो लगी ,
वह आज विरोध जो करने लगी ,
वह आज तय जो करने लगी ,
वह आज चयन जो करने लगी ,
वह आज फैसले जो लेने लगी ॥
लीक पर चलो ,
ठोक- बजा कर ,
पूरी कायवाद कर,
अपने इस्तेमाल के लिए ,
लाये थे तुम्हें ।
जितना हो जरूरी ,
उतना ही बोलो ,
जब तक हम न कहे ,
जहाँ हो वहीं चिपकी रहो ,
वैसे भी तुम तो न घर की हो घाट की ,
तुम्हारा नाम भी तो अपना नहीं ,
न कोई पहचान ,
क्या भर सकती हो कोई भी कागज- पत्तर,
हमारे दिये नाम के बिना ,
जब नहीं तुम्हारा कोई अस्तित्व ,
तो फालतू मे इतना शोर क्यों करो ,
जाओ जाकर कुछ पोंछो ,
कुछ साफ करो ॥
पर वह क्या करती ,
उसके सिर के चारों तरफ ,
जैसे कुछ उग आया था ,
जो दिखता तो नहीं ,
पर हर पल - हर घड़ी ,
उसे कौंचता रहता ,
उसे उकसाता - बहकता ,
पगली ! मत आ इस छलावे मे ,
तू भी एक शरीर -एक आत्मा है,
बरसों से कुचली गयी ,
रक्त -रंजित- उपेक्षित ,
अब न कर देर ,
कर आज़ाद अपने को ,
विभित्सित इन विचारों से ,
तेरा पागलपन कहीं भला है .,
इसलिए, अब उसे सिरफिरे होने पे भी कोई एतराज नहीं .....
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteआभार
Deleteसुन्दर .बेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteshukriya
Deleteहैट्स ऑफ इसके लिए।
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति . बद्दुवायें ये हैं उस माँ की खोयी है जिसने दामिनी , आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते
पगली ! मत आ इस छलावे मे ,
ReplyDeleteतू भी एक शरीर -एक आत्मा है,
बरसों से कुचली गयी ,
रक्त -रंजित- उपेक्षित ,
अब न कर देर ,
कर आज़ाद अपने को ,
विभित्सित इन विचारों से ,
तेरा पागलपन कहीं भला है .,
इसलिए, अब उसे सिरफिरे होने पे भी कोई एतराज नहीं
बहुत खुबसूरत भावनाओं से भरी मन को तरंगित करती रचना
बहुत सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति .........
ReplyDeleteधन्यवाद पूनम जी ...........
बहुत शानदार उम्दा
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