राजा को भा गयी सुनहरी बुलबुल ,
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|
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