सामने चल रहा था के० बी० सी०,
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |
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