Tuesday, August 31, 2010

Ghar kaa Angan

जब मैं छोटी थी ,
मेरे घर का आंगन बहुत बड़ा था,
उसमें समाया था पूरा मोहल्ल्ला |
सामने घर में जलते तंदूर की खुशबू ,

हमारे आंगन तक आती थी |
वहाँ पकती सौंधी- सौंधी रोटी ,
हर किसी को बांटी जाती थी |
स्कूल से आते ही ,बस्ता पटक ,
गली में निकल जाते थे ,
कंचे ,गिल्ली -डंडा और वो काटा के शोर से ,
हर आने -जाने वाले को सताते थे |
हमारे आंगन की धूप , सबकी सांझी थी |
अचार , पापड, स्वेटर के फंदे ,
रिश्ते -नाते, हारी -बीमारी सब यहीं निबटते थे |
आधी रात को , चंदू की माँ की बीमारी सुन ,
अब्दुल भागा- भागा  आया था ,
अपनी साईकल गिरवी रख ,वही दवा लाया था |
रधिया की शादी में पूरा मोहल्ला रोया था ,
पीटर की रतजगे मे कोई रात भर नहीं सोया था |
 कुलवंत भाभी की रजाई के धागे माँ ही डाला करती  थी ,
दादी के घुटनों की मालिश सब बारी से कर जाती थी|
एक ही टीवी सबको एक साथ  हँसता  - और रुलाता था
एक ही फ्रिज  सबके काम आ जाता था ,
टेलीफोन  की घंटी सुन ,चार घर दूर जाते थे ,
बातों के साथ , चाय भी पी आते थे |

अब मैं  हो गयी हूँ बड़ी  और सिमट गया है आंगन |
न है तंदूर और गली का शोर ,
हर घर का अपना है राग और अपना ही किस्सा,
अब नहीं बनता कोई किसी  का  हिस्सा ,
सब काम अब चुपचाप  निबट जाते है ,
हम भी शादी की भीड़ मे शगुन दे आते हैं |
सिकुड़ गये है रिश्ते , बदल गयी है निगाहें ,
जलन , इर्ष्या और नफरत की खड़ी है दीवार ,
मेरे घर के आंगन मे अब धूप  नहीं आती ,
दोपहर से पहले ही साँझ चली आती है |
अब मैं हो गयी हूँ बड़ी  और सिमट गया है आंगन |
इति....