सुनहली किरणों के स्पर्श से खुल जाते थे गुलों के लब,
उड़ते परागकणों की तरह निकल आते थे तुम..
तुम बिन बुलाए अक्सर आ जाया करते थे,
मगर अब ऐसा नहीं होता...
तुम्हीं तो ख्वाबों को कागजों पर शक्ल दिया करते थे,
कभी-कभी मूसलधार बारिश की बूंदों की तरह झरते थे,
और गीतों का सिलसिला बन जाता था।
हर लम्हा, हर जगह, हर शै में तुम कहीं न कहीं उभ्ार ही जाते थे ..
मगर न जाने क्यों और कहां गुम हो।
कलम करवट ही बदलती रहती है, किसी बिरहन की तरह....
कहां-कहां न तलाशा है तुम्हें,
किताबों के हर सफे से भी तुम नदारद ही नजर आते हो।
मेरी तन्हाइयों के दोस्त-मेरे शब्द।
कितना खुशगवार होता है शब्दों के साथ जीना
और कितना खामोश दर्द दे जाता है शब्दों का बिछड़ जाना.........
उड़ते परागकणों की तरह निकल आते थे तुम..
तुम बिन बुलाए अक्सर आ जाया करते थे,
मगर अब ऐसा नहीं होता...
तुम्हीं तो ख्वाबों को कागजों पर शक्ल दिया करते थे,
कभी-कभी मूसलधार बारिश की बूंदों की तरह झरते थे,
और गीतों का सिलसिला बन जाता था।
हर लम्हा, हर जगह, हर शै में तुम कहीं न कहीं उभ्ार ही जाते थे ..
मगर न जाने क्यों और कहां गुम हो।
कलम करवट ही बदलती रहती है, किसी बिरहन की तरह....
कहां-कहां न तलाशा है तुम्हें,
किताबों के हर सफे से भी तुम नदारद ही नजर आते हो।
मेरी तन्हाइयों के दोस्त-मेरे शब्द।
कितना खुशगवार होता है शब्दों के साथ जीना
और कितना खामोश दर्द दे जाता है शब्दों का बिछड़ जाना.........