Wednesday, November 16, 2011

धूप - छाँव


भूख से बिलबिलाता वह बालक ,
फकत चाह चंद बासी टुकड़ों की ,
झोली में उसकी उम्मीदों का चारा डाल गए ,
गाल थपथपा , तस्वीर खींच , लाखों यूँ ही पा गए .....

जिंदगी धूप - छाँव का खेल रही ,
सदियों तक कडकती प्रचंड आग रही ,
न मिली सुख की ठंडी छाँव कहीं ,
तरसता रहा चीथड़ों को कोई जन ,
औ आप मुफ्त ही रेशम के ढेर पा गए .....

किसी की सूनी आँख में न ख्वाब न तमन्ना है ,
जिंदगी बस दिन औ रात जीने फेर है ,
स्वप्न उन बंजर पलकों पर कभी फला नहीं ,
आप उनके सपनों की दुनिया सजा कर ,
तुच्छ नगमे गा कर यूँ ही नाम कम गए .......

न नाम औ न ही पहचान है कोई ,
जिसने जैसे पुकारा विशिष्टता है वही,
न कोई अंधी दौड़ है न कोई मुकाम ,
फिर भी जीने की पुरजोर कोशिश है कायम ,
सिर्फ एक नाम विरासत से ले ,यूँ ही वाहवाही पा गए ..