Friday, August 17, 2012

हसरत गुलाब की


उस राजा के प्राण बसते उस गुलाब में ,
करता बड़ी हिफाज़त से उसकी देख-रेख ,
स्वयं देता समय -समय पर खाद और पानी ,
करता खुद ही धूप -हवा और खर -पतवार का इंतज़ाम ,
रखता छुपा सबसे बड़े कांच के मर्तबान में ,
सहलाता आते -जाते ,होता खुश अपने नसीब पे ,
गुलाब भी कम प्रसन्न न होता अपने भाग्य पे ,
इठलाता पा प्रेमी जो चाहे उसे बढ़ -चढ़ के ,
उस पर था बस राजा का ही अधिकार ।

पर गुलाब तो था गुलाब आखिर कब तक ,
छिपाता  कब तक  सारे जहाँ से अपनी  महक ,
राजा भी तो नहीं कर पाया उसके सार को काबू ,
जितना करता प्रयत्न उसे दबाने का ,
उतना ही ज़्यादा गमकता - महकता ,
लोग करने लगे आते - जाते सवाल ,
होने लगी ताका - झांकी बार -बार ,
आखिर इस सौन्धाहट का क्या है राज़ ?

झल्लाया - उकताया राजा ,
बंद कर दिया हर खिड़की -रोशनदान ,
हर छिद्र और  दरार को दिया पाट ,
धीरे - धीरे मुरझाने लगा गुलाब ,
जितना बढ़ता निर्दयी राजा  का शिकंजा ,
उतना छटपटाता मासूम गुलाब ,
ढूंढ़ता कहीं कोई झिर्री या सुराख़ ,
जिसकी ओर कर रुख पा जाये ,
कुछ कतरा ताज़ी सांस ।

मेरी बस मेरी है हर पत्ती औ  पंखुरी ,
राजा का था सरेआम यह ऐलान ,
सिर्फ मैं ही हूँ कर सकता इसका रसपान ,
हर एक परागकण पर बस मेरा ही है अधिकार ,
खबरदार ! जो किसी ने लगाया इसे हाथ ,
गुलाब बिचारा देखा -करता इधर -उधर ,
सोचा करता किस तरह खिले -खिले फिरते बाकी के  गुलाब ...
शायद किसी दिन मिल जाये मुझको भी मुक्ति ,
हो जाऊ मै भी आजाद ..................






Thursday, August 16, 2012

" आज़ादी की पुकार "


तुम क्या मेरा जशन मानते हो ,मै तो खुद से ही हूँ अनजान,खुली हवा मे कैसे लेते सांस ,बनी हुई मै तो आकाओ की गुलाम ,वो देखो कूढ़े के ढेर पे ,नन्हा कुत्तों संग जंग लड़ता है,बासी टुकड़े की खातिर खुन्मखून होता है ॥बीच सड़क पे सरेआम अस्मत लूटी जाती है ,आती-जाती आंखे बेबस ही रहती है ॥पैदा होते ही वह पिछवाड़े फेंकी जाती है ,बन ग्रास पशुओं का परलोक सिधारी जाती है ॥पढ़ा -लिखा नौजवान दर -दर मारा फिरता है ,आखिर चंद सिक्कों की खातिर बिकता है ॥
 
बन भीड़ का हिस्सा करता है बलवा ,बिनमकसद ही करता आगजनी और लुटपाट ॥ यह सब होता है सफेदी और खाकी की आड़ मे ,मुगलों से अंग्रेजों तक कितने हाथ है बदले ,लगता अब ,तब मै ज़्यादा थी महफूज़.....

Wednesday, August 15, 2012

कर्मभूमि मे ही मैने ,जन्मभूमि को ढूंढ लिया है..

बरसों बीते गए देश को छोड़े ,
पर देश ने नहीं छोड़ा मुझको ,
सब सुख - सुविधाओं के बीच ,
मन हुलस- हुलस जाता है,
जब -जब आए होली दिवाली ,
या हो घर मे मुंडन- सगाई ,
देश तेरी बड़ी याद आई ॥ 
परियों का सा विदेश है यह ,
न बिजली जाने का गम ,
न ही मक्खी या मच्छर ,
साफ -सुथरी सड़कें यहाँ की ,
न हार्न को पीं-पीं -पों -पों ,
फिर भी न जाने क्यों ,
मन धूल - मिट्टी को तरस जाता है ॥
जानती हूँ नहीं मुमकिन अब ,
लौट के देश को जाना ,
न रही मै अब उधर की ,
अब तो इधर ही मन लगाऊँगी ,
लौटी तो वहाँ प्रवासी बन जाऊँगी ,
बड़ा कठिन अब वहाँ ताल -मेल बिठाना ,
कर्मभूमि मे ही मैने ,जन्मभूमि को ढूंढ लिया है ,
अब कर्मभूमि मे ही मैने ,जन्मभूमि को ढूंढ लिया है ..

Tuesday, August 14, 2012

barish ki bunde

कच्ची - कच्ची उन पगडंडियों मे,
बादल जब खुल कर बरसता था ,
छोटे छोटे पोखरो का समा सा बंध जाता था ,
बच बच कर चलती मै,फिर भी बच न पाती थी ,
अक्सर कहीं न कहीं चप्पल मेरी फंस जाती ,
तुम पगली कह हल्की धौल जमाते थे ,
फिर मेरा रूआँसा मुख देख ,मंद-मंद मुसकाते थे ,
अब न कर रोने का नाटक झल्ली ,ले पकड़ मेरा हाथ ,
एक हाथ कंधे पे ,दूजा होता तुम्हारी मुट्ठी मे ,
हल्के से झटके से तुम मुझे बाहर खींच ले आते ,
कीचड़ की वर्षा सी करती झटके से सीने से लग जाती थी ,
पल भर को ही सही बारिश का गुण मै गाती थी ,
जाने क्या हो जाता जन्नत मै पा जाती थी ,
चल अब चल पैर तू धो ले खींच पास के नल पे ले जाते ,
तुम यह न जाने कभी क्यों मेरा ही पैर अक्सर फँसता था ,
या शायद जान कर भी थे तुम बनते थे अनजान,
आज सड़क है पक्की ,न खुल कर बरसता है बादल ,
न लगती बुंदों की लड़ी ,न ही बनते है पोखर ,
होते भी तो क्या कर लेती ,तुम भो यहाँ नही साजन ....!