तब लगती थी हर बात नसीहत
हर टोक पर होती थी झुंझलाहट
तब नहीं समझी पर अब समझती हूँ माँ......
माँ बन कर जान पाई हूँ तेरी उलझन माँ
वो इम्तिहान के वक़्त वही बैठे रहना
आधी रात को उठ चाय का बनाना ,
सब कुछ दोहरा लिया न की रट लगाना ,
यह सब कितना किलसाता था ,
तब नहीं समझी पर अब समझती हूँ माँ ..
मेरे इंतज़ार में दरवाजे पर खड़े रहना ,
कहाँ रह गयी थी अब तक कह झिडकना ,
हाथ से बस्ता ले चल खा ले अब कुछ ,
तेरी ही पसंद का बनाया है कह दुलारना ,
अब मैं भी कुछ कुछ तेरी जैसी हो गयी हूँ माँ ,.
तब नहीं समझी पर अब समझती हूँ माँ.....!!!