या खुदा !
आज अपने मादा होने पे ,
जी दुखता है।
हे प्रभु !
आज बेटी जनने से ,
मन सुलगता है ।
क्यूँ नहीं बनाया ,
मच्छर -मक्खी या अदना सा कीड़ा ।
बर्बरता का देख तमाशा ,
अपने पैदा होने पे ह्रदय कलपता है ।
कब तक यूँ ही रहूँ मुँह छिपा ,
और अधिक ढकूँ अपने को ,
जनांगों पर लगा ताला ,
घिस डालूँ ये उभार ?
कर नारेबाजी दिलवा दूँ कोई सज़ा ?
पर क्या यह अश्लीलता यहीं रुक जाएगी ?
मिली सज़ा जो किसी एक को तो ,
क्या यह ,बर्बरता रुक पाएगी ?
जिस चौराहे फेंका मुझे ,
वहीं दिया जाए उल्टा टांग ,
हर आने -जाने वाला करे ,
लोहे के सरिये से तुम्हारे ,
मर्दाना अंगों पे वार पे वार ,
बूंद- बूंद , रिस - रिस मारो तुम ,
तभी होगा समाज का पूर्नउद्धार....
मेरी रूह ...आत्मा.... अस्मिता ..का व्यक्तिकरण....पुनर्जन्म...