जब आँखों में ऑंखें झाँकेंगी,
तब वक़्त वहीँ थम जाएगा ,
देख के साँसों का मिलन ,
यह चाँद भी जल जाएगा ,
इश्क वक़्त का मोहताज़ नहीं ,
इस लम्हें में मैनें जाना ,
जब मुझसे मिलने आओ प्रिय ,
वक़्त मुट्ठी में दबा लाना |
Saturday, November 27, 2010
tab samjh ayaa
आज धुंधला - धुंधला दिखा ,
अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में,
बार - बार पौंछती रही उसे ,
फिर भी चमका न सकी आईना |
अचानक हथेली से संभाली लट,
तो छू गया गीलापन ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है अपनी परछायीं |
सहसा असपष्ट होने लगे अक्षर ,
पढ़ न सकी तुम्हारी लिखावट ,
कभी दूर - कभी पास करती रही पन्ने ,
फिर भी साफ़ न हो सकी निगाह ,
अकस्मात टपक गयी एक बूंद ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है तुम्हारी इबारत ................
अपना ही प्रतिबिम्ब दर्पण में,
बार - बार पौंछती रही उसे ,
फिर भी चमका न सकी आईना |
अचानक हथेली से संभाली लट,
तो छू गया गीलापन ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है अपनी परछायीं |
सहसा असपष्ट होने लगे अक्षर ,
पढ़ न सकी तुम्हारी लिखावट ,
कभी दूर - कभी पास करती रही पन्ने ,
फिर भी साफ़ न हो सकी निगाह ,
अकस्मात टपक गयी एक बूंद ,
तब समझ आया ,
क्यों धुंधलाई है तुम्हारी इबारत ................
Wednesday, November 24, 2010
Jeevan ki dhuri
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ....................
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ....................
Monday, November 22, 2010
bas tum hi tum
हवा में महक सी तुम ,
धूप में किरण सी तुम ,
भोर में ओस सी तुम ,
बादल में बिजली सी तुम ,
नदी में गति सी तुम ,
आँखों में चमक सी तुम ,
दिल में धड़कन सी तुम ,
होठों में ध्वनि सी तुम ,
सपनों में जीवित सी तुम ,
भीड़ में तनहाई सी तुम ,
अब और कोई नहीं आता नज़र ..
जहाँ देखूँ सिर्फ तुम ही तुम ...........
pinjrey ki bulbul
राजा को भा गयी सुनहरी बुलबुल ,
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|
बुलबुल भी राजा को पा सब गयी भूल |
राजा की ही हाँ में हाँ मिलाती थी ,
राजा के लिए ही हँसती और गाती थी |
अपने कतरे पंख देख कर इतराती थी ,
अपने नए रूप पर स्वयं इठलाती थी |
अपनी उड़ान भूल , फुदकने लगी ,
बंद कमरे के दायरे में टहलने लगी |
इसी को अपनी नियति मान रम गई ,
यही दुनिया उसके तन - मन में बस गयी |
बंद खिड़की , दरवाज़े के पास जब भी गुजरती ,
भीतर कितना सुख है वह यह सोचती |
एक दिन खिड़की खुली रह गयी ,
वह चौखट पर जा कर जम गयी |
ताक रही थी खुला आकाश और हरी घास ,
दिल में जागी नयी उमंग और आस |
राजा के तेवर देख वापस लौट चली ,
अपने अरमान मन में ही कुचल गयी |
शायद अब मैं कभी उड़ न पाऊँगी,
सारी बस उम्र यूँ ही गवायुंगी|
Sunday, November 21, 2010
samsya kaa samadhaan
सामने चल रहा था के० बी० सी०,
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |
और जवाब दे रहे थे हम |
हर प्रश्न का उत्तर ,
जुबान पर था जड़ा,
जैसे हमारे लिए ही था गड़ा |
कहीं न हो रही थी हमसे भूल ,
न हो रही थी हमसे कोई चुक |
सभी सीढ़ियाँ फटाफट चढ़ते चले गए ,
किस्मत के ताले सरपट खुलते चले गए |
पर , हाय सारा कार्यक्रम चल रहा था टी० वी० पर ,
और हम बैठे थे अपने घर की हॉट सीट पर |
ऐसा क्यों होता है , जब समस्या हो किसी और की ,
सारे समाधान होते हैं हमारे पास ,
वही कठिनाई जब होती है अपनी ,
तो अक्ल हो जाती है गुम और शरीर हो जाता है सुन्न |
दूसरे के फटे में टांग अड़ाना आदत है ,
अपनी बात स्वयं सुलझाना मुसीबत है |
दूसरों को सलाह देते हम थकते नहीं ,
अपने आंगन में हम झंकते नहीं |
कितना अच्छा हो , अगर हम दूसरों से पहले अपनी सुने ,
किसी को कहने से पहले अपना मन गुने |
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