Tuesday, December 16, 2014

उन मासूमों के नाम .......

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देख तूने जो मागी थी पेसिल रंगीन ,
बाबा आज ही तेरे लिए लाये हें,
उठ .....भर दीवारों को कर चितकबरा ,....
नहीं ...नहीं टोकेगा कोई.....
तूने कल जो छुपाई दादी की ऐनक,
खेल ही खेल में, ढूंढती परेशान ....
आ ....चल जल्दी दे जा ,
तेरी उधड़ी पड़ी निक्कर की सीवन ,
सुई ले दादी हाथ में परेशान है ..........
दादा जी की टूटी पड़ी छड़ी ,
तूने कहा जोड़ेगा टेप से ,
देख लिए बैठे हाथों में ,
टकटकी बांधे दरवाजे पे , अब तो आजा ......
सुबह जल्दी - जल्दी मे प्लेट में छोड़ी,
अधखाई रोटी और लुढ़का दूध का ग्लास ,
अम्मा , हाथ मे लिए झाड़न खड़ी है ,
ठिठकी ...मूक.......अचेत .........................
बाबा .....अवाक....मौन.....
बस गूँजे कानों में एक ही आवाज़ ,
बाबा , इस बार छुट्टियों में चलेंगे कही दूर ...................बहुत दूर
नई सी जगह ......जहाँ न गया हो कोई ,
हाँ ...रे ...पगले जरूर ......अबकी बार ...........दूर ...
बहुत दूर.................
@ पूनम कासलीवाल

Tuesday, August 19, 2014

शब्‍दों का बिछड़ जाना.

सुनहली किरणों के स्‍पर्श से खुल जाते थे गुलों के लब,
उड़ते परागकणों की तरह निकल आते थे तुम..
तुम बिन बुलाए अक्‍सर आ जाया करते थे,
मगर अब ऐसा नहीं होता...
तुम्‍हीं तो ख्‍वाबों को कागजों पर शक्‍ल दिया करते थे,
कभी-कभी मूसलधार बारिश की बूंदों की तरह झरते थे,
और गीतों का सिलसिला बन जाता था।
हर लम्‍हा, हर जगह, हर शै में तुम कहीं न कहीं उभ्‍ार ही जाते थे ..
मगर न जाने क्‍यों और कहां गुम हो।
कलम करवट ही बदलती रहती है, किसी बिरहन की तरह....
कहां-कहां न तलाशा है तुम्‍हें,
किताबों के हर सफे से भी तुम नदारद ही नजर आते हो।
मेरी तन्‍हाइयों के दोस्‍त-मेरे शब्‍द।
कितना खुशगवार होता है शब्‍दों के साथ जीना
और कितना खामोश दर्द दे जाता है शब्‍दों का बिछड़ जाना.........

Tuesday, July 29, 2014

काश !सीख पती तुम्हें भूल पाना.....

आंसुओं की बारिशों से भीगी रातों में,
आधे खुले दरवाज़े से आती हुई रौशनी ,
हल्के अँधेरे और उजालों की छुटपुट आहटों के बीच लगा कि कोई आया है.....
बिखरता रहा उजड़े ख़्वाबों का चूरा,
लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं,
समय की धूल से भरे तकिये पर सर रखे,
न भूल पाने की बेबसी में..
दीवार... दरवाजें.....शहर और वीराना..
लौट आना बिस्तर पर...
काश !सीख पती तुम्हें भूल पाना...........

Saturday, April 5, 2014

हुआ ये क्यूँ कर?

वो दो जिस्म एक जान थे ,
धड़कता था एक ही दिल ,
साँसों का आरोह - अवरोह भी सम,
दर्द - आँसू - मुस्कान - प्यास भी वही .........
फिर ये क्या हुआ कि,
एक जिस्म हो गया जुदा,
अचानक उठ चल दिया ,
न कोई ताना - न उलाहना,
बस फीकी सी उदास नज़र,
हल्के - थके से कदम ,....
दूर जाती मटमैली सी छाया .............
रह गया जो, अब तक वही है पड़ा ,
मुर्दा सा - बुझे अलाव की राख की माफिक ,
भीतर ही भीतर धधकता ,
फिर धीरे- धीरे होता विलीन ............
हुबबू थे तो यह क्यों हुआ ....हुआ ये क्यूँ कर??????

Sunday, February 16, 2014

रचती अपना आज ...कल.....काल ...

वह नहीं सह पाई ताप ,
तेरी जुदाई का ,
निकल पड़ी नंगे पाँव,
ठंडी - जलती बर्फ पे ,
भागती - दौड़ती ,
निकलता धुआँ तलवों तले ,
सिसकी - आहों से सर्द होंठ ,
जमती लकीरें जर्द गालों पे ,
 यादों - वादों की बनती पगडंडियाँ,
ऊबड़ - खाबड़ ,खोती शून्य में....
बनती लहू की टेड़ी- मेड़ी डगर ,
छिलती खाल-  झिल्ली - मांस ,
बनाती - उकेरती अद्भुत नक्काशी ,
रूखी - कठोर - भावशून्य - जमीन पर ...........
रचती अपना आज ...कल.....काल .........!!! 

Tuesday, January 21, 2014

बहुत पहले ...

बहुत- बहुत...........-
बहुत पहले ...........
जितना सोच सको उससे भी पहले की बात ...
.तब नहीं पता था किसी को ,
कि क्या होता है समय ,
क्या होता है हिसाब - किताब ,
न कोई गिनता था ,
न कोई रखता था ,
न ही कहता था , नही है समय मेरे पास ...........
न थे दिन , महीने , साल ,
न पल , क्षण, घंटो का का सवाल ,
न घड़ी - घंटे और टन- टन करते घड़ियाल ,
तब --हाँ - हाँ तब भी चलता था ,
सब कुछ , होता था सब कुछ ,
अपने - आप .....
फिर चढ़ गया एक फितूर ,
इंसान रखने लगा हिसाब ,
गिनने लगा सब कुछ ,
पहाड़ - पत्थर , धरती - आकाश ,
ढलती - चढ़ती छाया का हिसाब ,
घटा- जोड़ - गुणा- भाग ,
बस तब से ------- तब ही से ,
डरने लगा , डरने लगा ,
आतंकित .................बिकने लगा .......