Thursday, November 8, 2012

बरिस्ता ... खिड़की ...कंजी आँखें....


उस दिन किसी का जन्मदिन था, या हम यूं ही धमक पड़े बरिस्ता की कॉफी पीने , याद नहीं ।
तभी देखा उसे खिड़की पास वाली सीट पर , देखते हुए उस पार ,मेज पर कप -भाप और गुलाब ,
यकायक घूमी  उसकी गर्दन ,दिखी गहरी - गहन - खोयी -खोयी सी कंजी आँखें ,
बेखबर अपने आस-  पास की बिखरी जिंदगी से ,तन्हा - एकाकी अपने मे ही गुम ,
लगता है किसी का है बड़ी बेसब्री से इंतज़ार , हाय ! काश , हमारा भी करता कोई ,
फिस्स ! हम सब हँस पड़ी , श श ! तुम सब चुप करो , चलो देखे कौन है वो ,
पर शायद हमे थी जल्दी जाने की और आने वाले को थे बहुत से काम ,
हम अक्सर जब भी बरिस्ता जाते ,खिड़की , गुलाब ,भाप और कंजी आँख वही मिलते ,
अब हम कॉफी के लिए कम उसके लिए ज़्यादा जाने लगे ,
उस दीवाने पर अपने ही किस्से - कहानी बनाने लगे ,
कमबख्त ,आती क्यूँ नहीं ,क्या पता क्या है मजबूरी ,
यूं ही देखते ही देखते दो बरस गुजर गए ,
हम सब भी हो गए दुनियादारी मे कहीं खो गए  ,
उस दिन माल मे ढूंढ रहे थी  कुछ ,
"क्या मै आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ ?"
पलटी तो देखा .... बरिस्ता ...खिड़की ...कंजी आँखें ॥
अरे तुम ! इतनी ज़ोर से चिल्लाई , वह सकपकाया ,
जी माफ कीजिये ,नहीं , जानता मै आपको ,
हमे तो कुबेर का खज़ाना मिला हो ,भूली नहीं थी ,
तुम वही हो न , बरिस्ता कॉफी और गुलाब ,
मिली क्या तुम्हारी वो , कितना इंतज़ार करवाया ,
सिर्फ तुम्हें नहीं ,हम सबको , बरसों तुम्हारे साथ ,
कोई एसे कैसे कर सकता है ... बड- बड़ - बड़ ,
हक्का - बक्का ,हैरान- परेशान सा वो ,बोला ,
जी , जन्मदिन था मेरा , कहा था उसने आएगी ,
ठीक चार बजे , तभी मै आधा -घंटा पहले ,
जा जम गया था , उस खिड़की के पास ,
देखूँ उसे दूर से आते हुये ,भर लूँ अपनी आँखों मे उसका अंदाज़ ,
दिखी , चार बजते ही सड़क के उस पार ,
हल्का पीला ,मेरा पसंदीदा रंग ,
मैने हाथ भी हिलाया ,पर वह देख रही थी घड़ी ,
मेरी तरह वह भी थी बेकरार , दोनों खोये एक दूजे मे इतना ,
न दिखी तेजी से आई कार, धड़ाम ,हवा मे उड़ता पीला रंग ,
सुनहरा - रुपहला समस्त संसार , जड़ हो गया तब से उसी कुर्सी पे ,
रोज़ चार बजे करता उसका इंतज़ार , अब जाता हूँ अक्सर ...देखने उसे ,
जानता हूँ नहीं है ,  आएगी भी नहीं , फिर भी  अच्छा लगता है उसका इंतज़ार ,
चार आँखें रो रही थी चुपचाप .....
बेखबर अपने आस-  पास की बिखरी जिंदगी से ,तन्हा - एकाकी अपने मे ही गुम  ॥



Wednesday, November 7, 2012

दो रंग



वह देखो ....देखो अरे देखो तो ज़रा ,
जन्मा पलको पे एक हंसी सपना ,
देखो ... निहारो .... सरहाओ,
पनपा ... पला....सजा ...संवरा ,
देखो .... देखो .... अरे देखो तो सही ,
पसीजा .... दुलका .... लुढ़का ....झरा ,
छलका ....टप.... टप ...टप ... ||

वह देखो ... देखो अरे देखो तो ज़रा ,
जन्मा पलकों पे एक हंसी सपना ,
देखो.... निहारो ...सरहाओ ,
पनपा ...पला ...सजा ....संवारा ,
देखो ...देखो...अरे देखो तो सही ,
हुआ मजबूत ...पक्का...द्र्ढ...
प्रबल ...पुख्ता .....साकार ...||

Sunday, November 4, 2012

शापित

शापित ही जन्मी तू ,
मिले सभी अधिकार ,
ऊँचा दर्जा भी पाया ,
कहलाई कल्याणी ,
पूजनीय भी रही तू ,
पर फिर भी अभिशप्त ही रही तू ॥

चिपकी रही जड़ों से ,
लेने को सांस यदा- कदा,
फैलाई नसे बाहर की और ,
जी ली पल दो पल फिर ,
ढाप दी गयी बदूबूदार मान्यताओं से ॥

तुमको नहीं है प्राप्त यह अधिकार ,
चलो वापिस अपने खोल में,
औकात मे ही रहो अपनी ,
जो करने को हो जन्मी वही करो ,
मत करो बराबरी यूं ही हमसे ॥

ज्ञात नहीं तुझे हमारी शक्ति का अंदाज़ा ,
घसीट बाहर कर सकते है अभी के अभी,
इतराती हो नारी के जिस मान पर ,
उसे जब चाहे सकते है रौंद,
तुम हो देहरी का गहना ,
यूं बस सज-सँवर दिल बहलाती रहो ,
राज करो बन गूंगी औ बहरी,
मुझे बस रीझती रहो ॥