ठंडे कांच से गाल टिका ,
पायताने बैठी लडकी ,
देखे अपने हिस्से का अस्मां ....
गोल घुमती सडक ,
छितरे- छितरे पेड़ ,
बिखरे - बिखरे लोग ,
भीतर पसरी चुप्पी ,
जब बड़ा देती है उब ,
इस खिड़की पर आ जाती है टूट ...!!!
रेशमी - पीली किरणों का ,
सुखद - लापरवाह अहसास ..
गोल - गोल हाथ घुमा ,
पकड़ती - खेलती, झलकती लहरों से...
नाचती - मुस्कुराती - तरंगित,
लपेटती औ होती एकाकार ,
रोम- रोम से निकलती ऊष्मा ,
होता प्रिय मिलन का आभास ,
जुड़ता इन्द्रधनुषी संसार .....
वह,... नहीं होती वह ,
जब होती है उस ,
पश्चिमी खिड़की के पास .......!!!!!!!!!!!