Monday, November 19, 2012

जीवन की धुरी

पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की 
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही |
भोर की पहली किरण छूती है मुझे ,
गुलाल हो जाती हूँ , तुम्हारे अहसास से |
बहती हवा का झोंका लहरा जाता है केश ,
उंगलियाँ तुम्हारी फिर जाती हैं जैसे |
चमकती किरणों की जलती चुभन ,
लबों पर मानो तुम्हारी जुम्बिश |
शाम की ढलती लाली का सुर्ख अबीर ,
तुम्हारी चाहत का रंग जैसे मेरे संग |
सुरमई आकाश पर चन्द्र की शीतलता ,
खो कर पाने की यही है सम्पूर्णता |
पता नहीं क्यों , जब होता है शुरू दिन ,
चाहे जब भी ,उस हर पल की 
धुरी तुम क्यों बन जाते हो ...
स्वयं ही ..............

15 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...
    :-)

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  2. वाह बहुत खूबसूरत अहसास हर लफ्ज़ में आपने भावों की बहुत गहरी अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है... बधाई आपको... सादर वन्दे...

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  3. वाह ... बेहतरीन

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  4. आप गुलाल हो जाती हैं भोर की पहली किरण से
    हम भी कभी भोर की किरण के साथ किसी के अहसास से सुकुन भरी शांति से भर जाते थे...
    खूबसूरत अहसास को याद दिलाने का शुक्रिया

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  5. खूबसूरत रचना
    अरुन शर्मा - www.arunsblog.in

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