Friday, May 31, 2013

वे

वे 
कुछ दिनों के लिए वे खोह मे छिप जाती ,
जिस कारण चलाती थी वंश ,
उसी की वजह से अछूत बन जाती ..... 
कस - कस कर बांधी जाती थी छतियाँ ,
जिन से पालती थी कद्दावर नस्ल ,
वही बेवजह बेशर्मी बन जाती .... 
काट - छाँट कर सील दिये जाते अंग ,
उनसे ही करती पैदा अगली पीढ़ी ,
कहीं छूते ही नापाक न हो जाए ..... 
गर्दनों मे फंसाए जाते अनगिनत छल्ले ,
जो हमेशा झुकती ही रही .....
आँखों की लिपाई - पुताई काजल से ,
जिन्हे उठाने पर सज़ा ही मिली ...
होठों पे मली गई फूलों की लाली ,
पर खोलते ही जिनके फटकार ही पड़ी ............
वे .............
सिर्फ और सिर्फ सजने- सजाने का सामान बनी ...वे ..

5 comments:

  1. बहुत उम्दा,लाजबाब अभिव्यक्ति ,,

    Recent post: ओ प्यारी लली,

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  3. वे .............
    सिर्फ और सिर्फ सजने- सजाने का सामान बनी ...वे ..----

    बहुत सही और जीवन से जुडी बात कही है
    सुंदर रचना

    आग्रह है पढें,ब्लॉग का अनुसरण करें
    तपती गरमी जेठ मास में---
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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