बीच चौराहे बैठी बुढ़िया ,
डाले अपनी छोटी सी टपरी |
बेच रही थी छोटी -बड़ी ,
हलकी - भारी कुछ पोटली |
ले लो- ले लो लेने वालो ,
अपने सुख- दुःख की गठरी |
बुढ़िया की थी साफ़ हिदयात ,
खोल कर देखना है मना
जितना भी तुम्हे मिला है ,
उसको लेकर मग्न रहो |
सब अपना सुख छाँट रहे थे ,
कनखियों से दूजे को आँक रहे थे |
दाब रहे थे अपना सुख पर ,
ताक रहे थे दूजे का दुःख |
हर कोई पोटली खींच रहा था ,
एक दूजे पर खीज रहा था |
अब सब अपनी गठरी ले घूम रहे हैं ,
लगती भारी जो कभी प्यारी थी बड़ी |
अब भी नजर दूसरे की पर ही है गढ़ी,
यही गठरी है क्यों मेरे गले पड़ी |
काश ली होती मैने भी वही ,
क्यों नहीं देखा मैने पहले सही |
बुढ़िया की टपरी अब भी वहीं है ,
लिखा है - बिका हुआ माल वापिस नहीं होता ..!!!
क्यों इतनी कठोर हृदया है यह पोटली वाली बुढिया? कभी द्रवित नहीं होती क्या?
ReplyDeleteवाह.....पूनम जी....बहुत गहरी बात कही आपने....ज़बरदस्त प्रतीकों का उपयोग किया है....लाजवाब|
ReplyDeleteसुन्दर भाव और अभिव्यक्ति
ReplyDelete@ Smart Indian...Budhiya..hamri bhgya vidhta hae..isliye jo bhi mila acha hae..
ReplyDeleteyeh jiwan hai....
ReplyDeleteI like it....
Very well expressed. Indeed a Poet is not only a superior human being but is a psychiatrist and a social scientist too. Captured the feelings and emotions of people with grace and understanding.Simply loved it.
ReplyDeleteatee sundar..
ReplyDelete