पाप - पुण्य,
दोनों ही बहते हैं ,
गंगा जी में ....
साथ - साथ , एक साथ .....
धोने को ,
या
कमाने को ....
मकसद चाहे जो भी हो ,
डुबकी तो दोनों ,
लगाते हैं साथ - साथ .....
हर - हर गंगे , हर - हर गंगे ,
बुद - बुदाते धीमे - धीमे ...
शांत - मौन मन ही मन ...
चीखते - चिल्लाते शोर ही शोर ...
पाप - पुण्य ,
दोनों ही बहते हैं ,
गंगा जी में ....
साथ - साथ ....एक साथ ....!
लगाते तो हैं साथ ही डूबकी , इस संसार में भी साथ .... पर वही बात है, मानस का हँस असली मोती ही चुनता है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteवाह.......और अथाह गंगा सब समेट लेती है अपने भीतर......कुछ अलग.....बहुत पसंद आई पोस्ट|
ReplyDeleteगंगा जी की यही तो खासियत है .. स्वीकार कर लेती हैं सब को निर्विकार रूप से ...
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर रचना की प्रसंशा करने की
ReplyDeleteकोशिश में एक नई रचना का जन्म हो गया है....
समर्पित आपको......
जिन्दगी के इस
उतार-चढ़ाव में भी
रहते हैं दोनों साथ-साथ....
कभी-कभी मौन,
तो कभी कुछ बुदबुदाते,
कुछ चीखते-चिल्लाते...
बहे चले जा रहे हैं
एक-दूसरे का
हाथ पकड़े हुए
जोर से..
छोड़ने की चाह में
बंधन और कसता जाता है...
कुछ है जो उन्हें एक-दूसरे से
जुदा नहीं होने दे रहा है...!
दोनों ही समर्पित खुद को,
साथ-साथ एक-दूसरे को भी,
विपरीत का बंधन भी
आकर्षण से कम नहीं...!
bahut Umda..Punam ji...
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