Sunday, December 4, 2011

वह पगली

वह पगली यहाँ - वहाँ बुझे अलावो को कुरेद रही थी ,
सीत्कारती जलते हाथ को सहलाती ,
मासूम बालक सा दुलारती ,
मशगूल फिर उष्ण आग को इधर - उधर छितराती,
देखती रही उसे काफी देर ,
पर रोक न पाई अपनेआप को ,
पास जा बोली ,अरी पगली ..
क्या करती है , जलाएगी क्या खुद को ,
सर उठा निर्विकार दृष्टि से देखा मुझे ,
फिर देखा सपाट नज़रों से अपनी हथेली को ....
कुछ देर रुकी और बोली ....
कुरेद रही हूँ अपने , बुझे सपनों की राख ,
शायद कहीं हो कोई चिंगारी अभी बाकी........!!!

8 comments:

  1. बहुत ख़ूबसूरत , सुन्दर भाव, सादर.

    ReplyDelete
  2. कुरेद रही हूँ अपने , बुझे सपनों की राख ,
    शायद कहीं हो कोई चिंगारी अभी बाकी........!!!उफ़ ……सारी पीडा सिमट आयी है इन पंक्तियों में।

    ReplyDelete
  3. कुरेद रही हूँ अपने , बुझे सपनों की राख ,
    शायद कहीं हो कोई चिंगारी अभी बाकी........!!!............वाह बहुत खूब

    एक चिंगारी ...जीवन की दिशा बदल देती है

    ReplyDelete
  4. bahut sundar...sarthak rachna..!
    come on my blog to wish
    my brother's birthday.

    ReplyDelete
  5. बहुत खूब ... सपनों का जलते रहना जीवित रहना जरूरी होता है ... उम्दा कलाम ....

    ReplyDelete
  6. बहुत ही अच्छी.... भावों से नाजुक शब्‍द......बेजोड़ भावाभियक्ति....

    ReplyDelete





  7. आदरणीया पूनम जी
    सस्नेहाभिवादन !

    वह पगली कविता में संवेदनाओं को बख़ूबी उकेरा है आपने …
    कुरेद रही हूं अपने , बुझे सपनों की राख ,
    शायद कहीं हो कोई चिंगारी अभी बाकी........!!!


    सपनों की राख में बरसों बाद भी चिंगारियां मिल जाती हैं …

    मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete
  8. आपकी पोस्ट में मेरे कमेन्ट नज़र नहीं आते......अगर आप नज़रंदाज़ करती है तो कृपया मुझे बता दे....मैं करना बंद कर दूंगा|

    ReplyDelete