आखिर क्यों तुम कभी समझ नहीं पाए मेरी मज़बूरी को ,
क्यों नहीं देख पाए डब डबाती आँखों मे,
कितना प्यार था , कितनी थी प्रीति,
दिखी तो दिखी बस आग और गर्मी ,
क्यों कर नहीं देख सके चारपाई से लगी माँ ,
और मेरी पीठ पर चिपके मेरे पिता,
विधवा सी दिखती बड़ी बहन ,
और इन सबके बीच झूलती मैं ...
क्यों नहीं समझ पाए चाह कर भी नहीं सींच पाई,
इश्क के इस पौधे को ,
प्रेम मेरा तुम से ज्यादा नहीं तो कम भी न था ,
फर्क है इतना कि अनेक बन्धनों मैं जकड़ा था ,
क्या करती कैसे छोड़ पाती यह सब ,
वक़्त ही न मिला की समझा जाती कुछ ,
पर अब भी एक आस बाकी है ,
जब तक है सांस मिलने का आसरा है ,
मरी नहीं है जड़ यकीं है मुझे ,
सीचा इसे दिल के आसुओं से हमने ..
क्यों नहीं देख पाए डब डबाती आँखों मे,
कितना प्यार था , कितनी थी प्रीति,
दिखी तो दिखी बस आग और गर्मी ,
क्यों कर नहीं देख सके चारपाई से लगी माँ ,
और मेरी पीठ पर चिपके मेरे पिता,
विधवा सी दिखती बड़ी बहन ,
और इन सबके बीच झूलती मैं ...
क्यों नहीं समझ पाए चाह कर भी नहीं सींच पाई,
इश्क के इस पौधे को ,
प्रेम मेरा तुम से ज्यादा नहीं तो कम भी न था ,
फर्क है इतना कि अनेक बन्धनों मैं जकड़ा था ,
क्या करती कैसे छोड़ पाती यह सब ,
वक़्त ही न मिला की समझा जाती कुछ ,
पर अब भी एक आस बाकी है ,
जब तक है सांस मिलने का आसरा है ,
मरी नहीं है जड़ यकीं है मुझे ,
सीचा इसे दिल के आसुओं से हमने ..
क्यों नहीं समझ पाए चाह कर भी नहीं सींच पाई,
ReplyDeleteइश्क के इस पौधे को ,
गहन अनुभूति
शुभकामनाये
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति , बधाई.
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना, असमंजस्य की स्थिति ...
ReplyDeleteसिसकती रूह में सुलगती प्रेम... बेहद भावपूर्ण...
ReplyDeleteबधाई हो
मेरे ब्लॉग पे आपका हार्दिक स्वागत ...
बहुत सुंदर
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना
कभी कभी ऐसी रचनाएं पढने को मिलती हैं
शुभकामनाएं
दर्द, लेकिन खूबसूरत कविता!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या कहने
कम ही ऐसी रचनाएं पढने को मिलती हैं
शुभकामनाएं
सुभानाल्लाह......... कई बार कर्तव्यों का स्थान भावनाओ से ऊँचा होता है और होना भी चाहिए|
ReplyDeletebahut bahut shukriyaa...
ReplyDeleteसंवेदनशील,,,,
ReplyDeleteखूबसूरत कविता!!